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उत्कृष्ट संख्यात में एक दाना सरसों को मिलाने से वह संख्या जघन्य परीत्त असंख्यात होती है उत्कृष्ट परीत्त असंख्यात के पहले और जघन्य परीत्त असंख्यात से आगे का मध्यम परीत्त असंख्यात कहलाता है तथा एक रूप हीन जघन्य युक्त असंख्यात, उत्कृष्ट परीत्त असंख्यात कहलाता है। (१६२ से १६४) जघन्य युक्तासंख्य प्रकारश्चायम्
यावत्प्रमाणो यो राशिर्भवेत्स्वरूप संख्यया । स न्यस्य तावतो वारान् गुणितोऽभ्यास उच्यते ॥१६५.. यथा पञ्चात्मको राशिः पञ्चवारान् प्रतिष्ठितः । मिथः संगुणितो जातः प्रथमं पञ्चविंशतिः ॥१६६॥ शतं सपादं सञ्जातो गुणितः सोऽपि पञ्चभिः। पुनः संगुणितः पञ्च विंशानि स्यु शतानि षट् ॥१६७॥ जातश्चतुर्थ वेलायामेक त्रिंशच्छतानि सः । . . पञ्चविंशत्युपचितान्यभ्यास गुणितं ह्यदः ॥१६८॥ . .
जघन्य युक्त असंख्यात के भेद इस प्रकार से हैं- स्वरूप की संख्या से जो राशि जितने प्रमाण की हो उतनी स्थापन करके उसे उतनी बार उतने गुना करने से जो राशि आती हो, वह राशि अभ्यास कहलाती है । उदाहरण तौर पर पांच राशि (अंक) ले लो । उस पांच को पांच गुणा करना अर्थात् वह पच्चीस होता है । उस पच्चीस को फिर पांच से गुणा करने से एक सौ पच्चीस होता है । इन एक सौ पच्चीस को वापिस पांच से गुणा करने से छह सौ पच्चीस होता है । इन छह सौ पच्चीस संख्या को अन्तिम पांच से गुणा करने से तीन हजार एक सौ पच्चीस होता है। इसका नाम 'अभ्यास गणित' कहते हैं । (१६५ से १६८) ततश्च - प्रागुक्ते सार्षपे पुजे यावन्तः किल सर्षपाः ।
तत्संख्यान् मुख्यनिचय तुल्यान् राशीन पृथक् पृथक् ॥१६६॥ कृत्वामिथस्तद् गुणने यो राशिर्जायतेऽन्तिमः । जघन्ययुक्तासंख्यं तदावली समयैः समम् ॥१७०॥
अब पूर्व में जो कहा हुआ है, उस सरसों के ढेर में जितने सरसों हो उतने, मुख्य ढेर के समान अलग-अलग ढेर करके उनको परस्पर गुणा करने से जो अन्तिम राशि (संख्या) आती है वह जघन्य युक्त संख्यात कहलाता है और वह एक आवलि के जितना समय है। (१६६-१७०)