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ननु च
( ११५)
- योगस्य परिणामत्वे लेश्यानां हेतुता भवेत् । प्रदेशबन्धं प्रत्येव न पुनः कर्मणां स्थितौ ॥ २६५ ॥
"जोगा पयडिपएसं । ठिइ आणु भागं कसायओ कुणइ" इति वचनात् ।
यहां कोई प्रश्न करता है कि योग के परिणाम भाव स्वीकार करते हैं तो लेश्या प्रदेश बन्ध का ही हेतुभूत होता है परन्तु कर्म की स्थिति का हेतुभूत नहीं होता है। क्योंकि आगम वचन यह है कि 'योग प्रकृति प्रदेश बंध और कषायों की स्थिति अनुभाग बंधन करती है।' (२६५)
अत्रोच्यते न कर्म स्थिति हेतुत्वं लेश्याना कोऽपि मन्यते ।
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कषाया एव निर्दिष्टा यत्कर्मस्थिति हेतवः ॥ २६६ ॥ लेश्याः पुनः कंषायान्तर्गतास्तत्त्पुष्टि कृत्तया । तत्स्वरूंपा · एव सत्योऽनुभागं प्रति हेतवः ॥ २६८ ॥
इसका समाधान इस तरह करते हैं कि- लेश्या कर्म स्थिति का कारण है, इस तरह किसी को भी मानना नहीं चाहिए । कर्म स्थिति का कारणभूत तो कषाय ही है । लेश्या तो कषायों में अन्तर्गत होकर, इसकी पुष्टि करने वाली होकर, तत्स्वरूप होकर अनुभागबंध का हेतुभूत होती है । (२६६-२६७)
." एतेन । यत्क्वचिल्लेश्या नामनुभाग हेतुत्वमुच्यते शिवशर्माचार्य कृत शतक ग्रन्थे च कषायाणामनुभाग हेतुत्वमुक्तम् तदुभयमपि उपपन्नम्। कषायोदयोपबृंहिकाणां लेश्यानामपि उपचार नयेन कषाय स्वरूपत्वात् इत्याद्यधिक प्रज्ञापना लेश्या पदवृत्तित: अवज्ञेयम्॥"
.' अर्थात् - इस प्रकार होने से क्वचित् लेश्या अनुभाग का हेतु रूप कहा हैयह बात और शिवशर्मा आचार्य श्री ने अपने 'शतक' नामक ग्रन्थ में कषायों को अनुभाग हेतु रूप कहा है, ये बात दोनों योग्य ही हैं। क्योंकि कषायों के उदय में. सहायता करने वाली लेश्याएं उपचार नय से कषाय स्वरूप ही कही हैं। इसका विशेष वर्णन ‘प्रज्ञापना सूत्र' में लेश्यापद के ऊपर वृत्ति- टीका दी है, उसके आधार से जान लेना । '
सा च षोढा कृष्ण नील कापोत संज्ञितास्तथा ।
तेजोलेश्या पद्मलेश्या शुक्ल लेश्येति नामतः ॥ २६८ ॥ लेश्या छ : प्रकार की है । उसके नाम इस प्रकार हैं १- कृष्ण लेश्या, २- नील लेश्या, ३ - कपोत लेश्या, ४- तेजोलेश्या, ५- पद्म लेश्या और ६- शुक्ल लेश्या । (२६८)
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