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केचन ग्रामघाताय चौराः कूर पराक्रमाः । क्रामन्तो मार्गमन्योऽन्यं विचारमिति चक्रिरे ॥ ३७३ ॥ एकस्तत्राह दुष्टात्मायः कश्चिद् दृष्टिमेति नः । हन्तव्यः सोऽद्य सर्वेऽपि द्विपदो वा चतुष्पदः ॥ ३७४॥ अन्यः प्राह चतुष्पाद्धिरपराद्धं न किंचन । मनुष्या एव हन्तव्या विरोधो यैः सहात्मनाम् ॥३७५॥ तृतीयः प्राह न स्त्रीणां हत्या कार्याति निन्दिता । पुरूषा एव हन्तव्या यतस्ते क्रूर चेतसः ॥३७६॥ निरायुधैर्वराकैस्तैर्हतैः किं नः प्रयोजनम् । घात्याः सशस्त्रा एवेति तुर्यश्चातुर्यवान् जगौ ॥३७७॥ स शस्त्रैरपि नश्यद्भिर्हतैः किं नः फलं भवेत् । सायुधो युध्यते यः स वध्य इत्याह पंचमः ||३७८॥ पर द्रव्यापहरणामेक पापमिदं महत् । प्राणापहरणं चान्यच्चेत्कुर्मस्तर्हि का गतिः ॥ ३७६॥ धनमेव तदादेयं मारणीयो न कश्चन । षष्ठः स्पष्टमभाषिष्ट प्राग्वदत्रापि भावना ॥ ३८० ॥ अब २- दृष्टान्त छः चोर का कहते हैं
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एक समय छः दुष्ट परिणाम वाले मनुष्य किसी गांव को लूटने के लिए चले। रास्ते में एक गांव आया । इतने में एक दुष्टात्मा चोर बोला- आज जो भी कोई प्राणी मिले उसे मार देना चाहिए। उसमें चाहे दो पैर वाला हो या चार पैर वाला हो, सब को खत्म कर देना । जरा दयालु दूसरा बोला- चार पैर वालों ने अपना क्या अपराध किया है ? उसे क्यों मारना चाहिए ? इसलिए हमें तो जो मनुष्य हो उसी को मारना चाहिए । तब तीसरा बोला- इस तरह योग्य नहीं कहलाता। सभी मनुष्यों में से हमें स्त्रियों को अलग रखना चाहिए क्योंकि स्त्री हत्या करना निंदनीय माना गया है । तब चौथा विशेष चतुर था, वह बोला- जिसके पास में शस्त्र न हों ऐसे बिचारे रंक को नहीं मारना चाहिए, परन्तु जो शस्त्र वाला हो उसे ही मारना चाहिए। उस समय पांचवें ने अपनी सलाह दी कि शस्त्र से युक्त हो परन्तु यदि वह भाग जाता हो तो नहीं मारना चाहिए, किन्तु जो हमारे सामने युद्ध करने आए उसे ही मारना चाहिए। आखिर बुद्धिमान छठा चोर बोल उठा- हम लोगों का धन उठा लेते