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(१३४) किंच -- अनन्तरावगाढानि स्वगोचर गतानि च ।
द्रव्याण्यभ्यवहार्याण्यणूनि वा बादराणि च ॥३६६॥ आहरन्ति वर्णगन्धरसस्पर्शान्युरातनान् ।
विनाश्यान्यांस्तथोत्पाद्या पूर्वान्जीवाः स्वभावतः ॥३६७॥(युग्मं) .इत्याहारादिक् । प्रसंगात् किंचिदाहारस्वरूपं च ॥१८॥
यह जीव अल्प भी अनन्त बिना अवगाही रहे आहार के योग्य, सूक्ष्म या स्थूल स्वगोचर पदार्थों को इसके पुरातन वर्ण, रस, गंध और स्पर्श दूर करके इसके स्थान पर अपूर्व अन्य वर्ण, रस, स्पर्श और गंध उत्पन्न करके आहार करता है। (३६६-३६७)
इस तरह अठारहवां द्वार आहार की दिशा का स्वरूप सम्पूर्ण हुआ।
अस्थि सम्बन्ध रूपाणि तत्र संहननानि तु । .. षोढा खलु विभिद्यन्ते दाढर्यादि तारतम्यतः ॥३६८॥
अब उन्नीसवें द्वार संहनन के विषय में कहते हैं- संहनन (संघयन) अर्थात् अस्थियों के सम्बन्ध से संयुक्त अंग-शरीर का होता है। कम; ज्यादा दृढ़ता आदि विशिष्टता को लेकर संहनन छः प्रकार का कहलाता है । (३६८) तथा हुः - वजरिसह नारायं पढमं बीयं च सिहनारायं ।
नारायामद्धनाराय कीलिया तहय छेवढें ॥१॥ संघयन छः प्रकार का होता है- १- वज्रऋषभ नाराच, २- ऋषभ नाराच, ३- नाराच, ४- अर्ध नाराच, ५- कालिका और ६- सेवार्त ।
कीलिका वज़मृषभः पट्टोऽस्थिद्वय वेष्टकः । । अस्नोमर्कट बन्धो यः स नाराच इति स्मृतिः ॥३६६॥ :
वज्र अर्थात् किल, ऋषभ अर्थात् दो अस्थि-हड्डी पर लिपटा हुआ पट्टा, नाराच अर्थात् अस्थियों का मर्कटबन्ध होता है । (३६६) ततश्च - बद्धे मर्कटबन्धेन सन्धौ सन्धौ यदस्थिनी ।
अस्थना च पट्टाकृतिना भवतः परिवेष्टिते ॥४००॥ तदस्थित्रयमाविद्धय स्थिते नास्थ्ना दृढीकतम ।
कीलिका कृतिना वर्षभ नाराचकं स्मृतम् ॥४०१॥ इस तरह से १- सन्धि के स्थान-स्थान पर मर्कट बन्ध से बन्धन की हुई