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(१३२) भावात्वेवम्
सर्वाधस्तादधोलोक निष्कटूस्यानि कोणके । स्थितो भवेद्यदैकाक्षस्तदासौ त्रिदिगुद्भवः ॥३८५॥
उसकी भावना इस प्रकार है - सब से नीचे अधोलोक आया है। उसके निष्कूट के अग्नि कोने में जो कोई एकेन्द्रिय जीव रहता हो वह तीन दिशाओं से आहार लेता है । (३८५)
पूर्वस्यां च दक्षिणस्यामधस्तादिति दिक त्रये । संस्थितत्त्वादलोकस्य ततो नाहार सम्भवः ॥३८६॥ । अपरस्या उत्तरस्या ऊर्ध्वतश्चेति दिक् त्रयात् । पुद्गला नाहरत्येवं सूक्ष्माः पंचानिलोऽनणुः ॥३८७r.
क्योंकि पूर्व दिशा में, दक्षिण दिशा में और अधः अर्थात् नीचे- इस तरह तीन दिशाओं में अलोक होने से वहां से उसे आहार मिलना सम्भव नहीं होता अर्थात् पश्चिम दिशा में से, उत्तर दिशा में से और उर्ध्व अर्थात् ऊँचे से सूक्ष्म पांच एकेन्द्रिय और बादर वायु पुद्गलों का आहार करते हैं । (३८६-३८७)
तथोक्तम् - इह लोकचरमान्ते बादर पृथिवी कायिका कायिक तेजोवनस्पतयो न सन्ति । सूक्ष्मास्तु पंचापि सन्ति बादरावायुकायिकाश्चेति । पर्याप्तापर्याप्तक भेदेन द्वादश स्थानान्यनुसतव्यानीति भगवती सूत्र शतक ३४ उद्देश १ वृत्तौ ॥
तथा कहा है कि- इस लोक के अन्तिम भाग में बादर पृथ्वी काय, अप्प काय, तेज काय, और वनस्पति काय नहीं होता है । सूक्ष्म अस्ति काय पांचों होती हैं और बादर वायु काय है । इन छ: के पर्याप्त और अपर्याप्त - इस तरह दो भेद करते बारह स्थानक होते हैं । ऐसा भगवती सूत्र शतक ३४ उद्देश प्रथम में कहा है ।
द्वयोर्दिशोस्तथैकस्या अलोक व्याहतौ बुधैः । चतुः पंचदिगुत्पन्नोऽप्येषामेव विभाव्यताम् ॥३८८॥
और उनको भी यदि दो दिशाओं में अलोक का व्याघात हो तो शेष चार दिशाओं में से आहार होता है और एक दिशा में अलोक का व्याघात होता हो तो शेष पांच दिशाओं में से आहार होता है । (३८८)
तथापि-सर्वाधस्तादधोलोक एव चेत्त्पश्चिमादिशम्। . स्थितोऽनुसृत्यौकाक्षः स्यात् प्राच्यां न व्याहतिस्तदा ॥३८६॥