________________
(१३३) अधस्तनी दक्षिणा च द्वे एव व्याहते इति । दिग्भ्योऽन्याभ्यश्चत सृभ्यः पुद्गलानाहरत्यसौ ॥३६०॥ (युग्मं )
वह इस तरह से- यदि एकेन्द्रिय जीव अचानक नीचे अधोलोक में ही पश्चिम दिशा के अनुसार रहा हो तो फिर उसे पूर्व दिशा में व्याघात नहीं होता। इससे केवल अधोदिशा और दक्षिण दिशा दो दिशा से ही व्याघात होते हैं । इससे शेष चार दिशाओं में से उसे पुद्गल का आहार मिलता रहता है । (३८६-३६०)
द्वितीयादि प्रतरेषु यदोर्ध्वं पश्चिमां दिशम् । स्थितोऽनुसृत्यैकाक्षः स्यान्न व्याहतिरधोऽपि तत् ॥३६१॥ व्याहता दक्षिणैवैका ततः पंच दिगागतान् । पुद्गलानाहरत्यैष एवं सर्वत्र भावना ॥३६२॥ (युग्मं)
और जब एकेन्द्रिय जीव दूसरे, तीसरे आदि प्रस्तर में ऊर्ध्व दिशा अथवा पश्चिम दिशा के अनुसार रहा हो तंब उसे अधोदिशा में से भी व्याघात नहीं होता अर्थात् केवल दक्षिण दिशा का ही व्याघात रहता है, इससे शेष पांच दिशाओं में से आए हुए पुद्गलों का आहार उसे होता है । इस तरह सर्वत्र समझना। (३६१-३६२)
द्रव्यतश्च स आहारः स्यादनन्त प्रदेशकः । संख्यासंख्यप्रदेशो हि नात्मग्रहण गोचरः ॥३६३॥
यह आहार द्रव्य की अपेक्षा से अनंत प्रदेश वाला होता है क्योंकि आत्मा को संख्य-असंख्य प्रदेश ग्रहण गोचर नहीं हैं । (३६३)
असंख्याध्रप्रदेशानां क्षेत्रतः सोऽवगाहकः । . जघन्यमध्यमोत्कृष्ट स्थितिकः कालतः पुनः ॥३६४॥
और क्षेत्र की अपेक्षा यह आहार असंख्य आकाश प्रदेश का अवगाह स्वीकार करने वाला है.और काल.की अपेक्षा से इसकी स्थिति जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट हैं । (३६४)
भावतः पंचधा वर्णरसैर्गन्धैर्द्विधाष्ट धा । स्पर्शेरेक गुणात्वादि भेदैः पुनरनेकधा ॥३६५॥
अन्तिम भाव की अपेक्षा से इस आहार के पांच वर्ण और रस हैं, दो प्रकार की गंध हैं और आठ प्रकार के स्पर्श हैं तथा एक गुणा, दो गुणा, तीन गुणा इस तरह . भेद करते हैं तो इसके अनेक भेद होते हैं । (३६५)