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इसी प्रकार है, इसीलिए ही भावना परिवर्तन होने के कारण देवता और नारकी के जीवों को छः लेश्या होती हैं। ऐसा पूर्वाचार्यों ने कहा है । (३१८)
सुरनारयाणताओ दव्व लेसा अवट्टिया भणिया । भावपरावृत्ती पुण एसु हुन्ति छल्लेसा ॥३१६॥
. देव और नारक जीवों को द्रव्य लेश्या ही कही है, परन्तु भावना अध्यवसाय परिवर्तन होने से छ: लेश्या होती हैं । (३१६)
दुष्ट लेश्या वतां नारकाणमप्यत एव च ।
सम्यकत्व लाभो घटते तेजो लेश्यादि सम्भवी ॥३२० ॥
इस तरह होने से ही दुष्ट लेश्या वाले नरक जीवों को तेजोलेश्या आदि उत्पन्न होने से समकित की प्राप्ति घटं सकती है। (३२०)
यदाहुः – सम्मत्तस्स य तिसु उवरिमासु पडिवज्ज माणओ हो । पुव्वपडि वन्नओ पुण अन्न यरीए उ लेसाए ||
कहा है कि - उपली अर्थात् प्रथम तीन लेश्याओं में सम्यकत्व की प्रतिपत्ति-प्रतिपादन होता है, और पूर्व में जिनमें इस सम्यकत्व की प्रतिपत्ति हुई हो, शेष की तीन लेश्याओं में होते हैं ।
वे
तथैव तेजोलेश्याद्ये घटते संगमामरे । वीरोपसर्गक़र्तृत्वं कृष्ण लेश्यादि सम्भवि ॥३२१॥
इसी प्रकार तेजोलेश्या वाले संगमदेव ने वीर परमात्मा को उपसर्ग किया था, वह कृष्ण आदि लेश्या की संभावना के कारण समझना। (३२१)
स्वरूपत्यागतः सर्वात्मना तिर्यग्मनुष्ययोः ।
'लेश्यास्तद्रूपता यान्ति रागक्षिप्तपटादि वत् ॥३२२॥
मनुष्य और तिर्यंच की लेश्याएं स्वरूप से सर्वतः त्याग होने के कारण रंग बहु के समान तद्रूप हो जाती हैं । (३२२)
अतः एवोत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहूर्त्तमवस्थिताः ।
`तिर्यग् नृणां परावर्त्त यान्ति लेश्यास्ततः परम् ॥ ३२३॥
इसी कारण से ही तिर्यंच और मनुष्य की लेश्या उत्कृष्ट रूप में अन्तर्मुहूर्त तक रहती है, और उसके बाद उसके भाव बदल जाते हैं । (३२३)