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विवक्षितभवान्मृत्वोत्पद्य चानन्तरे भवे ।
यत्सम्यक्त्वाद्य श्रुतेंऽगी सानन्तराप्ति रुच्यते ॥२२॥
विवक्षित जन्म से मृत्यु प्राप्त कर और दूसरे जन्म में उत्पन्न होकर प्राणी समकित आदि को स्पर्श करते हैं, इसे 'अनन्तराप्ति कहते हैं' (२८२)
इस तरह पंद्रहवां द्वार सम्पूर्ण हुआ ।
लब्ध्वा नृत्वादि सामग्री यावन्तोऽधिकृतांगिनः । सिद्धयन्त्येकक्षणे सैक समये सिद्धि रुच्यते ॥२८३॥
मनुष्य पने आदि की सामग्री प्राप्त कर योग्यता वाला बना प्राणी जितना एक समय में सिद्ध होता है उसे एक समय सिद्ध कहते हैं । (२८३)
इति एक समय सिद्धि स्वरूपम् ॥१६॥ यह सोलहवां द्वार है। कृष्णादि द्रव्य साचिव्यात्परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं लेश्या शब्दः प्रवर्तते ॥२८४॥
अब लेश्या नाम के सत्तरहवें द्वार का स्वरूप कहते हैं- कृष्ण आदि द्रव्य के संयोग से स्फटिक रत्न का जैसे अन्य नया परिणाम स्वरूप होता है वैसे ही कर्मों के संयोग से आत्मा का परिणाम होता है, उसे लेश्या कहते हैं । (२८४)
द्रव्याण्येतानि योगान्तर्गतानीति विचित्यताम् । संयोगत्वेन लेश्यानामन्वय व्यतिरे कतः ॥२८५॥
अन्वय- परस्पर सबन्ध और व्यतिरेक- उसके अभाव से लेश्या के संयोग रूप के कारण इस द्रव्य योग के विषय अन्तर्गत समझना। (२८५)
यावत्कषाय सद्भावस्तावत्तेषामपि स्फूटम् ।
अमून्युपं वृहकाणि स्युः साहायक कृत्तया ॥२८६॥
जितने प्रमाण में कषाय का सद्भाव होता है उतने प्रमाण में कषायों का वह द्रव्य सहायक कारण होकर प्रगट होता है। (२८६)
दृष्टं योगान्तरर्गतेषु द्रव्येषु च परेष्वपि । उपबृंहण सामर्थ्य कषायोदय गोचरम् ॥२८७॥
क्योंकि योगान्तर्गत अन्य द्रव्यों में भी कषाय के उदय में जो प्रगट सामर्थ्य . होता है वह सामर्थ्य दिखाई देता है। (२८७)
यथा योगान्तर्गतस्य पित्त द्रव्यस्य लक्ष्यते । क्रोधोदयो दीप कत्वं स्याद्यच्चंडोऽति पित्तकः ॥२८८॥