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विंशतियोषितः किं च पुमांसोऽष्टोत्तर शतम् । एकस्मिन्समये क्लीवाः सिद्धयन्ति दस नाधिका ॥१०७॥
एक सौ आठ स्वलिंग में दस अन्यभिक्षुलिंग और चार गृहस्थ लिंग में सिद्ध हुए हैं और एक समय में स्त्रीलिंग बीस, पुरुषलिंग में एक सौ आठ तथा नपुंसक लिंग से उत्कृष्ट दस होते हैं । इससे अधिक नहीं होते। (१०६-१०७) एक समये अष्टोत्तर शत सिद्धि योग्यता संग्रहश्चैवम्
तिर्यग् लोके क्षपित कलुषाः कर्मभूमि स्थलेषु । जाता वैमानिक पुरुषतो मध्यमांग प्रमाणः ॥ सिद्धयन्त्यष्टाधिकमपि शतं साधुवेषाः पुमांसः । तार्तीयीके नियतमरके चिन्त्येता वा तुरीये ॥१०८॥
एक समय में एक सौ आठ. कौन कौन सिद्धि के योग्य हो सकते हैं ? इन सब का संग्रह इस प्रकार - तिर्यक लोक में और कर्म भूमियों में प्रत्येक में एक सौ आठ सिद्धि के योग्य होते हैं । वैमानिक पुरुष वेद से उत्पन्न हुए मध्यम अंग प्रमाण वाला तथा साधु वेषधारी- इन तीनों में से भी प्रत्येक में से एक सौ आठ सिद्धि के योग्य होते हैं। तथा उत्सर्पिणी के तीसरे आरे में और अवसर्पिणी के चौथे आरे में भी इतनी संख्या के सिद्धि के योग्य होते हैं । (१०८)
यत्रको निर्वतः सिद्धस्तत्रान्ये परिनिर्वताः। अनन्ता नियमाल्लोक पर्यान्त स्पर्शिनः समे ॥१०६॥ .
जहां एक सिद्ध रहते हैं वहां उतनी ही अवगाहना में अन्य भी अनंत सिद्ध रहे हैं, और ये सर्व लोक के अग्र भाग में स्पर्श करके रहे हैं । (१०६)
अयमर्थ- सम्पूर्णमेका सिद्धस्यावगाह क्षेत्रमाश्रिताः ।
- अनन्ताः पुनरन्ये च तस्यैकेकं प्रदेश कम् ॥११०॥ समाकम्यावगाढाः स्युः प्रत्येकं तेऽप्यनन्तकाः। एवं परे द्वित्रिचतुः पंचाद्यंशाभिवृद्धितः ॥१११॥ युग्मम्।
कहने का भावार्थ यह है कि- एक सिद्ध में सम्पूर्ण अवगाढ़ किए क्षेत्र के अन्दर अनन्त सिद्धात्मा रह सकते हैं - रहते हैं और इससे उपरांत अन्य भी इससे कम बहुत एक-एक प्रदेश के आश्रित रहे हैं, वे भी अनन्त हैं। इसी तरह अन्य भी दो, तीन, चार, पांच आदि बढ़ते हुए अंशों के आश्रित रहे, अनन्त हैं । (११०-१११)