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(६१) उत्कर्षतस्त्वधः शैला नरकक्ष्मातलावधि । गतानां तत्र केषां चित्तेषां मरण सम्भवात् ॥१५७॥ तिर्यक् स्वयंभूरमणा परान्त वेदिकावधि । ऊर्ध्वं तथेषत्प्राग्भारा पृथिव्यूज़ तलावधि ॥१५८॥ एता वदन्तं पृथिवी कायत्वेन समुद्भवात् । ततः परं च पृथिवीकायादीनाम सम्भवात् ॥१५६॥
तथा उत्कृष्ट रूप में नीचे अन्तिम शैला नामक नरक के तले तक जानना क्योंकि वहां जाने वाले कईयों की वहां मृत्यु होनी संभव होती है। तिरछा, अन्तिम स्वयंभूरमण समुद्र के अन्तिम किनारे की वेदिका तक जानना और ऊँचा अन्तिम सिद्ध शिला की पृथ्वी के ऊर्ध्व तले तक जानना क्योंकि वहां तक वे पृथ्वीकाय रूप में उत्पन्न होते हैं। उससे आगे पृथ्वीकायादि की उत्पत्ति नहीं होती है। (१५७ से १५६)
सनत्कुमार कल्पादि देवानां स्याजघन्यतः ।
अंगुलासंख्येय भागमाना सैवं विभाव्यते ॥१६०॥
सनत्कुमार आदि देवलोक के देवों की जघन्य तैजस अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें विभाग सदृश होती है। (१६०) .
वह इस प्रकारदेवा सनत्कुमाराद्या उत्पद्यन्ते स्वभावतः । गर्भजेषु नृतिर्यक्षु धुवं नैकेन्द्रियादिषु ॥१६१॥
सनत्कुमार आदि देव स्वाभाविक रूप में गर्भज मनुष्य और तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं। एकेन्द्रिय आदि में वे उत्पन्न नहीं होते हैं। (१६१)
यदा सनत्कु मारादि सुधाभुग्मन्दरादिषु । दीर्घिकादौ जलक्रीडां कुवार्णः स्वायुषः क्षयात् ॥१६२॥ उत्पद्यते मत्स्यातया स्वात्यासन्न प्रदेशके । तदा जघन्या स्यादस्य यद्वैवं सम्भवत्यसौ १६३॥ युग्मं।
ऐसा एक देव जब मन्दराचल पर्वत आदि में बावड़ी हृद, सरोवर आदि में जल क्रीड़ा करता हो उस समय आयुष्य का क्षय होने से अपने से अति नजदीक के प्रदेश में मत्स्य रूप में उत्पन्न होता है तब उसे जघन्य तेजस अवगाहना होती है। (१६२-१६३)