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मोटा, चौड़ा, ऊँचा, नीचा सुद्धा लोकान्त को स्पर्श करने वाले दण्ड सृजन करते है । (२४०)
द्वितीये समये तस्य कृर्यात्पूर्वापरायतम् । कपाटं पाटवोपेतः समयेऽथ तृतीयके ॥२४१ ॥
ततो विस्तार्य प्रदेशानुदीची दक्षिणा यतम् । मंथानं कुरुते तुर्ये ततोऽन्तराणि पूरयेत् ॥ २४२॥ युग्मं ।
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दूसरे समय में ये केवली भगवन्त चातुर्य पूर्वक इस दण्ड को पूर्व-पश्चिम लम्बा कपाट के आकार का बनाते हैं । फिर तीसरे समय में इसमें से प्रदेशों के उत्तर - दक्षिण लम्बे विस्तार को मन्थानी रूप में करते है और चौथे समय में सारे लोक में व्याप्त हो जाते है, उसके अन्तर को भर लेते हैं । (२४१-२४२)
स्वप्रदेशैस्तदा सर्वान् लोकाकाश प्रदेशकान् ।
स व्याप्नोति समाह्येते लोकाकाशैक जीवयोः ॥२४३॥
उस समय उन आत्म प्रदेशों द्वारा लोकाकाश- चौदह राजलोक के सर्व प्रदेशों में व्याप्त हो जाते हैं अत: जहां खाली जगह रह जाती है उसको भरकर आत्मा लोकाकाश और एक जीव के समान प्रदेश हो जाते हैं । उस समय आत्मा का विराट् स्वरूप बनता है। (२४३)
संहरेत् पंचमे चासौ समयेऽन्तर पूरणम् । षष्टे संहृत्य मन्थानं संहरेत्सप्तमेऽररिम् ॥ २४४॥ संहरेदष्ट मे दण्डं शरीरस्थस्ततो भवेत् । अन्तर्मुहूर्त जीवित्वा योगरोधाच्छिवं व्रजेत् ॥ २४५॥
उसके बाद पांचवें समय में अन्तराल को सिकोड़ते हैं, तत्पश्चात् छठे समय में मंथानी को सिकोड़ते ( समेटते ) हैं और सातवें समय में कपाट को सिकोड़ते हैं । आठवें समय में दण्ड को समेट कर पहले की तरह अपने मूल शरीर में ही स्थित हो जाते हैं । फिर अन्तर्मुहूर्त्त जीकर योगरोधन कर मोक्ष जाते हैं। (२४४-२४५)
यदाहुः- यस्य पुनः केवलिनः कर्म भगत्या युषो ऽतिरिक्त तरम् ।
स समुद्घातं भगवानुपगच्छति तत्समी कर्तुम ॥ २४६ ॥ कहा है कि- अगर किसी केवल ज्ञानी भगवन्त के, आयुष्य कर्म - वेदनीय