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(१०४) चतुर्दशानां पूर्वाणं धर्ताहारकलब्धिमान् । जिनर्द्धि दर्शनादीनां मध्ये केनापि हेतुना ॥२३४॥ आहारक समुद्घातं कुर्वन्नात्म प्रदेशकैः । दंडं स्वांग प्रथु स्थूलं संख्येय योजनायतम् ॥२३५॥ निसृज्य पुद्गलानाहारकनाम्नः पुरातनान् । . विकीर्यादाय तद्योग्यान् देहमाहारकं सृजेत ॥२३६॥ विशेषकम्।
इति आहारक समुद्घातः। . .. छठे आराहक लब्धि वाले चौदह पूर्वधारी जिनेश्वर भगवन्त की समृद्धि देखने आदि किसी हेतु से आत्म प्रदेश द्वारा शरीर प्रमाण मोटा, चौड़ा और संख्यात योजन लम्बा दण्ड करके पुरातन (प्राचीन) आहारक पुद्गलों को बिखेरकर तथा योग्य पुदगलों को ग्रहण करके आहारक शरीर का सृजन करना उसका नाम आहारक समुद्घात है । (२३४ से २३६) :
यस्यायुषोऽतिरिक्तानि कर्माणि सर्व वेदिनः । वेद्याख्यनाम गोत्राणि समुद्घातं करोति, सः ॥२३७॥
अब सातवें व अन्तिम केवलि समुद्घात के विषय में कहते हैं कि- जिस सर्वज्ञ केवल ज्ञानी को आयु से अधिक स्थिति वाले वेदनीय नाम और गोत्र कर्म होते है वे केवली भगवन्त समुद्घात करते हैं । (२३७) ..
आन्तर्महर्तिकं पूर्वमावर्जीकरणं सजेत् ।
अन्तर्मुहूर्त शेषायुः समुद्घातं तंतो व्रजेत् ॥२३८॥ प्रथम अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त आवर्जीकरणं करते हैं और फिर जब आयुष्य अन्तर्मुहूर्त शेष रहे उस समय समुद्घात करते हैं । (२३८)
आवर्जीकरणं शस्तयोग व्यापारणं मतम् । इदं त्ववश्यं कर्त्तव्यं सर्वेषां मुक्तिगामिनाम् ॥२३६॥
आवर्जीकरण अर्थात् शुभ योगों का व्यापार । वह सर्व मोक्ष मार्गी को अवश्य करना पड़ता है। (२३६)
आत्म प्रदेशैर्लोकान्त स्पृशमूर्ध्वमधोऽपि च । कुर्यादाद्यक्षणे दण्डं स्वदेह स्थूल विस्तृतम् ॥२४०॥ प्रथम समय में वे केवली भगवन्त आत्म प्रदेश द्वारा स्व शरीर के अनुसार