________________
(८६) अर्थात् उत्कृष्ट अधोग्राम और पांडकवन से लेकर उस लोकाग्र में अंत तक होता है। (१४२)
सातिरेकं योजनानां सहस्रस्याजघन्यतः । नारकाणां तैजसावगाहना साथ भाव्यते ॥१४३॥
नारकी के जीवों की जघन्य तेजस अवगाहना एक हजार योजन से कुछ अधिक होती है। इस विषय में कहते हैं। (१४३)
सन्ति पाताल कलशाश्चत्त्वारोऽब्धौ चतुर्दिशम् । अधो लक्षं योजनानामवगाढा इह क्षितौ ॥१४४॥ सहस्र योजन स्थूल कुडयास्तेषां च निश्चिते । अधस्तने तृतीयांशे वायुर्वर्वर्ति केवलम् ॥१४५॥ मध्यमे च तृतीयांशे मिश्रितौ सलिलानिलौ । तथोपरितने भागे तृतीये केवलं जलम् ॥१४६॥
समुद्र के अन्दर चार दिशाओं में चार पाताल कलश है। ये कलश पृथ्वी के अन्दर एक लाख योजन अक्गाह करके रहते हैं। एक हजार योजन मोटे तले के कारण निश्चल रहते हैं। उन कलशों में बिलकुल नीचे तीसरे भाग में केवल वायु ही है, बीच के तीसरे विभाग में जल और.वाय मिश्र रहते है और आखिरी ऊपर के तीसरे विभाग में केवल जल ही रहता है। (१४४-१४६) ततश्च- सीमन्तकादि नरकवर्ती कश्चन नारकः।
पाताल कलशासनो मरणान्त समुद्धतः ॥१४७॥ कुडयं पाताल कुम्भानां विभिद्योत्पद्यते यतः । मत्स्यत्वेन तृतीयांशे मध्यमे चरमेऽपि वा ॥१४८॥ युग्म्। तस्मादुर्वाक् तु नैवास्ति तिर्यग्मनुज सम्भवः । उत्पत्ति रकाणां च न तिर्यग्मनुजौ बिना ॥१४॥
इससे सीमंतक आदि नरक में रहने वाला कोई भी नारकी एक पाताल कलश के नजदीक में मरणांत समुद्घात करे तो पाताल कलश के तले को भेदन कर उस नारकी का जीव कलश के बीच अथवा आखिरी ऊपर के भाग में मत्स्य उत्पन्न होता है। क्योंकि उससे आगे तिर्यंच अथवा मनुष्य का होना संभव नहीं है और नारकियों की उत्पत्ति तिर्यंच अथवा मनुष्य बिना नही है। (१४७-१४६)
उत्कर्षतस्त्वधो यावत्सप्तमी नरकावनीम् । नारकाणामेत दन्तं स्वस्थान स्थिति सम्भवात् ॥१५०॥