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(६८) एक जीवापेक्षया स्याजयेष्टमौदारि कान्तरम् ।
अन्तर्मुहूर्ताभ्यधिका स्त्रयस्त्रियंशत्पयोधयः ॥२०१॥
एक जीव की अपेक्षा से औदारिक शरीर का अन्तर उत्कृष्ट तैंतीस सागरोपम और एक अन्तर्मुहूर्त का होता है । (२०१) तथोक्तं जीवाभिगम वृतौ
उत्कर्षतस्त्रिंशत्सागरोपमाणि अन्तर्मुहूर्त्ताभ्यधिंकानि॥ ..
तानि चैवम्। कश्चिच्चारित्री वैक्रिय शरीरं कृत्वान्तर्मुहूर्त जीवित्वा स्थिति क्षयादविग्रहेणानुत्तर सुरेषु जायत इति।। .
जीवाभिगम सूत्र की वृत्ति में कहा है कि औदारिक शरीर का अन्तर उत्कृष्ट तैंतीस सागरोपम और एक अन्तर्मुहूर्त का है । इसी तरह से जैसे कि कोई चारित्रवंत जीव वैक्रिय शरीर कर स्थिति क्षय के कारण केवल अन्तर्मुहूर्त जी कर, वहां से बिना शरीर अनुत्तर विमान के देवों में उत्पन्न होता है।
वैक्रियस्यान्तरं कायस्थिति कालो वनस्पतेः । अर्धस्य पुद्गल परावर्त आहारकान्तरम् ॥२०२॥ .
वैक्रिय शरीर का उत्कृष्ट अंतर वनस्पति काय की स्थिति काल के समान है और आहारक शरीर का उत्कृष्ट अर्धपुद्गल परावर्तन के समान है । (२०२)
लघु चाद्यस्स समायोऽन्तर्मुहूर्त तदन्ययोः । न सम्भवत्यन्तरं च देहयोरुक्त शेषयोः ॥२०३॥
' इत्यन्तर कृतो विशेषः। इति देह स्वरूपम् ॥६॥ - प्रथम औदारिक शरीर का अन्तर जघन्य से एक समय का है । बाद के दो वैक्रिय और आहारक का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त का है। शेष दो कार्मण और तेजस का अन्तर संभव नहीं होता। इस तरह अन्तर सम्बन्धी भेद प्रभेद का अन्तर समझाया । (२०३) इस तरह देह नामक नौवें द्वार का स्वरूप सम्पूर्ण हुआ।
संद सल्लक्षणोपेत प्रतीक सन्निवेशजम । शुभाशुभाकार रूपं षोढा संस्थानमंगिनाम् ॥२०४॥
शुभ-अशुभ लक्षण वाले, अच्छे खराब आकृति रूप प्राणी का संस्थान इसके अवयवों के सन्निवेश को लेकर छः प्रकार का होता है । (२०४)
वह इस प्रकार