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(६७) इस तरह से स्थिति सम्बन्धी विशेष कहा है।
आहारकं सर्वतोऽल्पं यत्कदाचिद्भवेदिदम् । भवेद्यदि तदाप्येतदेकं द्वे वा जघन्यतः ॥१६४॥ सहस्राणि नवोत्कर्षाद सत्तास्य जघन्यतः । एकं समयमुत्कृष्टा षण्मासावधि विष्ट पे॥१६५॥ युग्मं।
आहारक शरीर सर्व से अल्प है क्योंकि यह कदाचित ही होता है और जब होता है तब भी जघन्य से एक अथवा दो होता है और उत्कृष्ट नौ हजार होता है। इसकी जगत् के विषय में असत्ता जघन्य एक समय तक है और उत्कृष्ट से छः महीने तक की है । (१६४-१६५) उक्तच- आहार गाइंलोगे छम्मासा जा न होति विकयाइ।
उक्कोसेणं नियमा एक्कं समयं जहन्नेणं ॥१६६॥ कहा है कि- इस लोक में निश्चय से आहारक शरीर उत्कृष्ट छः महीने तक नाश नहीं होता और जघन्य से एक समय तक इसका अभाव रहता है । (१६६)
आहारकादसंख्येय गुणानि वैक्रियाणि च । तत्स्वामिनाम संख्यत्वान्नारकांगि सुपर्वणाम् ॥१६७॥
आहारक शरीर से असंख्यात गुणा वैक्रिय शरीर होता है क्योंकि वैक्रिय शरीर के धारण करने वाले नारकी जीव मनुष्य और देव असंख्य हैं । (१६७)
अप्यौदारिक देहाः स्युस्तदसंख्य गुणाधिकाः । आनन्त्येऽपि तदीशानाम संख्या एव ते यतः ॥१६८॥ प्रत्यंगं प्राणिनो यत्स्युः साधारण वनस्पतौ । अनन्तास्तानि चासंख्यान्यैवांगानि भविन्त हि ॥६६॥ तेभ्योऽनन्त गुणास्तुल्या मिथस्तैजस कार्मणाः । यत्प्रत्येकमिमे स्यातां द्वे देहे सर्वदेहिनाम् ॥२००॥
- इति अल्पबहुत्व कृतो विशेषः॥ औदारिक शरीर भी वैक्रिय से असंख्यात गुणा हैं तथा औदारिक शरीर वाले जीव अनन्त हैं । फिर भी शरीर तो असंख्यात हैं क्योंकि उदाहरण के तौर पर साधारण वनस्पति में प्रत्येक अंग में जीव अनन्त है परन्तु शरीर असंख्यात ही होता है । औदारिक से अनंता गुना तैजस और कार्मण शरीर होते है । इन दोनों की संख्या समान है क्योंकि दोनों प्रत्येक प्राणी को होते हैं । (१६८ से २००) इस तरह अल्प बहुत्व कृत विशेष कहा है।