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परं नोत्पद्यते गर्भ नरो नृक्षेत्रतो बहिः । ततः उत्कर्षतस्तिर्यग् नृक्षेत्रावधि सोदिता ॥१८॥ इत्यर्थतः प्रज्ञापन सूत्रैक विंशतितमपदे॥
अगर विधाधर स्त्री के साथ में नन्दीश्वर द्वीप तक आता है और वह काम के बाण से पराजित होकर वहां संसार संभोग भी करता है, परन्तु मनुष्य क्षेत्र से बाहर गर्भ में मनुष्य उत्पन्न नहीं होता। इसलिए उनकी तिर्यक् अवगाहना उत्कृष्ट रूप में मनुष्य क्षेत्र तक ही कही है । (१८४-१८५)
इस तरह पन्नावणा सूत्र के इक्कीसवें पद में अर्थ कहा है। "इति प्रमाणवगाहकृतः विशेषः" इस तरह प्रमाणवगाह कृत विशेष रूप में कहा है ।
स्थितिरौदारिकस्यान्तर्मुहर्त स्याजघन्यतः । उत्कृष्टा त्रीणि पल्यानि सातु युग्मिष्यपेक्षया ॥१८६॥
औदारिक शरीर की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की होती है और यह युगालियों की अपेक्षा से कहा है । (१८६)
दशवर्ष सहस्त्राणि जघन्या जन्म वैक्रिये । त्रयस्त्रिंशत्सागराणि स्थितिरुत्कर्षतः पुनः ॥१८७॥
वैक्रिय शरीर की जघन्य स्थिति जन्म से लेकर दस हजार वर्ष की होती है और उत्कृष्ट स्थिति तैंतीस सागरोपम की होती है । (१८७)
वैक्रि यस्य कृतस्यापि जघन्यान्तर्मुहूर्तिकी । ज्येष्टा तु जीवाभिगमे गदिता गाथया नया ॥१८॥
कृत्रिम वैक्रिय शरीर की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है व उत्कृष्ट स्थिति जीवाभिगम सूत्र में इस तरह गाथा कही है । (१८८)
अंत मुहूत्तं नरएसु होइ चत्तारि तिरियमणुए सु । देवेसु अद्धमासो उक्कोस विउवणा कालो ॥१८॥
कृत्रिम वैक्रिय का उत्कृष्ट काल नारकियों में अन्तर्मुहूर्त का, तिर्यच और मनुष्यों में चार अन्तर्मुहूर्त का और देवों में अर्धमास (पखवारा) का होता है । (१८६)
पंचमांगे तु वायूनां संज्ञि तिर्यग्नृणामपि । ज्येष्ठाप्येकान्तर्मुहूर्ता प्रोक्ता वैकुर्विक स्थितिः ॥१६॥