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तिर्यक् स्वयम्भूरमण समुद्रावधि सा भवेत् । नारकाणां तत्र मत्स्यादित्वेनोत्पत्ति सम्भवात् ॥१५१॥ ऊर्ध्वं च पंडक वन स्थायितोयाश्रयावधि ।
अतः ऊर्ध्वं तु कुत्रापि न तिर्यक् सम्भवोऽस्ति न ॥१५२॥
अब नारकी जीवों की उत्कृष्ट तेजस अवगाहना के विषय में कहते है। यह अवगाहना नीचे अन्तिम सातवें नरक तक होती है। क्योंकि इनका अपने स्थानों के विषय में ही रहने का संभव है और इन स्थानों का किनारा आ जाता है। तिरछा लोक आखिर स्वयंभूरमण समुद्र तक होता है। क्योंकि वहां उनका मत्स्यादि रूप में उत्पन्न होना संभव है तथा ऊँचाई में आखिर पांडक वन के जलाशय तक होता है क्योंकि इससे ऊपर तिर्यंच अथवा मनुष्य की उपस्थिति कहीं पर भी नहीं होती। (१५० से १५२)
पंचेन्द्रिय तिरश्चां च जघन्या परमापि च । .. .. : विकलेन्द्रियवत् ज्ञेया तैजसस्यावगाहना ॥१५३।।
पंचेन्द्रिय तिर्यंचो के तेजस शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट रूप में विकलेन्द्रिय के समान जानना। (१५३) .
अंगुलासंख्येय भाग मात्रा नृणां जघन्यतः । उत्कर्षतश्च नक्षेत्राल्लोकान्तावधि कीर्तिता ॥१५४॥ ..
मनुष्य के तेजस शरीर की अवगाहना जघन्य रूप में अंगुल के असंख्यातवें विभाग जितनी और उत्कृष्ट रूप में आखिर भरत क्षेत्र से लोकांत तक जानना। (१५४)
भवन व्यन्तर ज्योतिष्काघद्विसर्गनाकिनाम् । अंगुला संख्येय भागमाना ज्ञेया जघन्यतः ॥१५५॥ ममत्वाभिनिविष्टानां स्वरत्नाभरणादिषु । • पृथिव्यादितया तेषां तत्रैवोत्पत्ति सम्भवात् ॥१५६॥ युग्मं।
भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और पहले दो देवलोकों के देवों की तेजस अवगाहना जघन्य रूप में अंगुल के असंख्यातवें विभाग जितनी जानना । क्योंकि ये रत्न, आभूषण आदि में ममत्व रूप देव समझते हैं इस कारण ही पृथ्वी कायादिक रूप में उत्पन्न होना संभव है। (१५५-१५६)