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सोलह के चार वर्ग से भाग (गुणा) करने से चार भागाकार (हिस्सा) करने में आता है, चार का भी दो भाग करने से दो ही बचते हैं । (१४७)
सुखस्य तस्य माधुर्यं कलयन्नपि केवली । वक्तु शक्नोति नो जग्धगुडादेहिवत् ॥१४८॥ यथेप्सितान्नपानादि भोजनानन्तरं पुमान् । तृप्तः सन् मन्यते सौख्यं तृप्तास्ते सर्वदा तथा ॥१४६॥ एवमापात मात्रेण दर्श्यते तन्निदर्शनम् । वस्तुतस्तु तदा ह्लादोपमानं नास्ति विष्ठ ॥ १५० ॥ औपम्यस्याप्य विषयस्ततः सिद्ध सुखं खलु । यथा पुरसुखं जज्ञे म्लेच्छवाचाम गोचरः ॥१५१॥
इन सिद्ध के सुख की मधुरता केवली भगवन्त स्वयं जानते हैं, फिर भी मिष्ट पदार्थ भोजन करने वाले गूंगे मनुष्य के समान अन्य के सामने वर्णन नहीं कर सकते हैं । केवल मन वांछित भोजन से तृप्त बना पुरुष जो सुख मानता है वैसा ही सुख सिद्ध के जीव को सदा रहता है। मोक्ष सुख का यह किंचित् मात्र दिग्दर्शन है, वस्तुत: तो इसके आह्लाद - प्रसन्नता का अखिल जगत् में कोई उपमानउपमा ही नहीं हैं । वास्तविक सिद्ध का सुख तो एक नगर में सुख का जैसे एक सामान्य मनुष्य से' वर्णन नहीं हो सकता, वैसे किसी से वर्णन नहीं हो सकता है। (१४८-१५१)
तथा चाहु:- मलेच्छः कोऽपि महारण्ये वसति स्म निराकुलः । अन्यदा तत्र भूपालो दुष्टाश्वेन प्रवेशितः ॥ १५२ ॥
म्लेच्छेनासौ नृपा दृष्टं सत्कृतश्च यथोचितम् । प्रापितश्च निजं देशं सौऽपि राज्ञा निजं पुरम् ॥१५३॥ ममायमुपकारीति कृतो राज्ञाति गौरवात् । विशिष्ट भोगभूतीनां भाजनं जनपूजितः ॥ १५४ ॥ तुंगप्रासाद श्रृंगेषु रम्येषु काननेषु च । वृतो विलासिनी वृन्दैर्भुक्ते भोग सुखान्यसौ ॥१५५॥ अन्यदा प्रावृषः प्रात्तौ मेघाऽम्बरमम्बरे । दृष्टं वा मृदंगमधुरैर्गर्जितैः केकिनर्तनम् ॥१५६॥ जातोत्कंठो दृढं जातेोऽरण्यवास गमं प्रति । विसर्जितश्च राज्ञापि प्राप्तोऽरण्यमसौ ततः ॥१५७॥