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(७१) तथा च- व्यक्ति तोऽसंख्यभेदास्तः संख्यार्हानैव यद्यपि ।
तथापि सम वर्णादि जातिभिर्गणना गताः ॥४४॥ यह योनि व्यक्ति परत्व से असंख्यात भेद वाली होती है । इसकी संख्या नहीं हो सकती है परन्तु समान वर्ण आदि जाति को लेकर इसकी गिनती हो सकती है।
(४४)
... तथोक्तं प्रज्ञापना वृत्तौ- "केवलमेव विशिष्ट वर्णादियुक्ताः संख्यातीताः स्वस्थाने व्यक्ति भेदेन योनयः। जाति अधिकृत्य एकैव योनिर्गण्यते॥" ___ प्रज्ञापना सूत्र की वृत्ति-टीका में कहा है कि- विशिष्ट वर्ण आदि. से युक्त होने से योनियां निज स्थान में व्यक्ति भेद को लेकर असंख्यात कहलाती हैं, परन्तु जाति की अपेक्षा से एक ही योनि गिनी जाती है। . लक्षाश्चतुरशीतिश्च सामान्येन भवन्ति ताः ।
विशेषातु यथास्थानं वक्ष्यन्ते स्वामि भावतः ॥४५॥
आम तौर से योनियां चौरासी लाख होती हैं जो सात लाख सूत्र में इसका विस्तार पूर्व आया है। इस विषय में विशेष विस्तार स्वामि भाव से यथा स्थान पर कहा जायेगा। (४५). .. किंच- संवृता विवृता चैव योनिर्विवृत संवृता ।
- दिव्य शय्यादि वद्वस्त्राद्यावृता तत्र संवृता ॥४६॥ योनि कै १- संवृत, २- विवृत और ३- विवृत संवृत - इस तरह तीन भेद होते हैं । दिव्य शय्या आदि के समान वस्त्रादि से आच्छादित हुई हो वह प्रथम संवृत योनि है। (४६) ... .
तथा विस्पष्ट मनुपलक्ष्यमाणापि संवृता । विवृता तु स्पष्टमुपलक्ष्या जलाशयादिवत् ॥४७॥
जो स्पष्ट रूप में नहीं दिखती हो वह इस संवृत के अन्तर भेद में आती है। जो जलाशयादि के समान स्पष्ट रूप में दिखाई दे वह दूसरी विवृत योनि है । (४७)
उक्तोभय स्वभावा त योनिर्विवत संवता । बहिर्दृश्याऽदृश्या मध्या नारोगर्भाशयादिवत् ॥४८॥
जो कुछ स्पष्ट दिखाई देती हो और कुछ अस्पष्ट दिखाई देती हो, वह । तीसरी विवृत संवृता अर्थात् मिश्र योनि कहलाती है। इसका स्त्री के गर्भाशय के