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(७०) तत्रैकाहार पर्याप्तिः समाष्ये तादिमे क्षणे । शेषां असंख्य समय प्रमाणान्तर्मुहूर्ततः ॥३८॥
आहार पर्याप्ति प्राणी प्रथम क्षण में ही समाप्त करता है, शेष पांच रहे हुओं को असंख्यात समय प्रमाण अन्तर्मुहूर्त में समाप्त करता है। (३८)
अनुक्रमोऽयं विज्ञेय औदारिक शरीरिणाम । . वैक्रियाहारकवतां ज्ञातव्योऽयं पुनः क्रमः ॥३६॥ एका शरीर पर्याप्तिर्जायतेऽन्तर्मुहूर्ततः । . एकैक क्षण वृद्धयातः समाप्यन्ते पराः पुनः ॥४०॥
यह अनक्रम औदारिक शरीर कले को समझना। वैक्रिय और आहारक शरीर वालों की तो केवल शरीर पर्याप्ति अन्तर्मुहूर्त में होती है। शेष पांच एक-एक क्षण देरी में समाप्त होती हैं। (३६-४०)
निष्पत्ति कालः सर्वासां पुनरान्तर्मुहूर्तिकः । आरम्भ समयाद्यान्ति निष्टां ह्यन्तर्मुहूर्ततः ॥४१॥ . . आहार पर्याप्तिस्त्वत्रापि प्राग्वत् ।
छहों का निष्पत्ति काल तो अन्तर्मुहूर्त का ही है क्योंकि इनका आरंभ समय से प्रारंभ करके अंतर्मुहूर्त में ही सम्पूर्ण होता है। (४१) आहार पर्याप्ति तो यहां भी पूर्व के अनुसार ही समझना।
मनोवचः काय बलान्यक्षाणि पंच.जीवितम् । श्वासश्चेति दश प्राणा द्वारेऽस्मिन्नेव वक्ष्यते ॥४२॥
इति पर्याप्ति स्वरूपम् ॥३॥ मनोबल, कायबल, वचन, पांच इन्द्रिय, आयुष्य और श्वासोच्छ्वास - इस तरह दस प्राण हैं । इसका विवेचन भी इसी द्वार के प्रकरण में आगे कहा जायेगा। (४२) इस प्रकार से संसारी जीवों के स्वरूप सैंतीस द्वारों में से तीसरा पर्याप्ति नामक द्वार का स्वरूप कहा गया है। अथ योनि संख्या स्वरूपम्
तैजस कार्मणवन्तो युज्यन्ते यत्र जन्तवः स्कन्धैः ।
औदारिकादियोग्यैः स्थानं तद्योनिरित्याहुः ॥४३॥
अब चौथा द्वार योनि संख्या के विषय में कहते हैं - तैजस शरीर वाले और कार्मण शरीर वाले जन्तु औदारिक आदि शरीर के योग्य-स्कंध द्वारा जहां जुड़ता है उस स्थान को योनि कहते है। (४३)