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(७४) कूर्मोन्नत और जिसकी बांस के दो संयुक्त पत्र जैसी आकृति हो वह ३- वंशीपत्रा योनि कहलाती है। (५६-५७)
स्त्रीरत्नस्य भवेच्छंखावर्ता सा गर्भवर्जिता । व्युत्क्रामन्ति तत्र गर्भा निष्पद्यन्ते न ते यतः ॥८॥ अति प्रबल कामानेर्विलीयन्ते हि ते यथा । कुरूमत्या कर स्पृष्टोऽप्य द्रवल्लोह पुत्रकः ॥५६॥
स्त्री रत्न की योनि 'शंखावर्त' होती है. और यह गर्भवर्जित होती है अर्थात् उसमें गर्भ रहता ही नहीं है, नष्ट हो जाता है । क्योंकि ऐसी स्त्री रत्न की कामग्नि अत्यन्त प्रबल होती है इस कारण गर्भ भस्मसात् हो जाता है। कहा है कि कुरुमति जो एक स्त्रीरत्न थी, उसके हाथ के स्पर्श होते ही जो लोहे का पुतला था वह द्रवीभूत (पिघल) हो गया था। (५८-५६)
तथा च प्रज्ञापनायाम्।संखावत्ताणंजोणी इत्थिरयणस्स। तथा प्रज्ञापना सूत्र भी साक्षी देता है कि स्त्री रत्न की शंखावर्त योनि होती है। अर्हच्चक्रिविष्णु बलदेवाम्बानां द्वितीयिका । तृतीया पुनरन्यासां स्त्रीणां योनिः प्रकीर्तिता ॥६०॥
अरिहंत, चक्रवर्ती, वासुदेव तथा बलदेव माताओं की योनि दूसरे प्रकार की अर्थात् 'कूर्मोन्नत' होती है । शेष सर्व स्त्रियों की तीसरे प्रकार की अर्थात् वंशीपत्रा योनि होती है। (६०)
इदं च योनीनां त्रिधा त्रैविध्यं स्थानांगतृतीय स्थाने ॥आचारांग वृत्तौ तु शुभाशुभ भेदेन योनीनामनेकत्त्वमेवं गाथाभिः प्रदर्शितम्
इस प्रकार योनि तीन प्रकार की हैं और प्रत्येक के भी पुनः तीन-तीन भेद की बातें स्थानांग सूत्र तीसरे स्थान में कही हैं । आचारांग सूत्र की वृत्ति में तो योनियों का शुभाशुभ भेद करके अनेक भेद बताए हैं। उसकी गाथाए इस प्रकार कहते हैं -
सीआदी जोणीओ चउरासी ती असय सहस्सेहिं । • असुहाओ य सुहाओ तत्थ सुहावो इमा जाण ॥६१॥
अस्संखाउ मणुस्सा राइ सर संखमादि आ ऊणं । तित्थयर नाम गोअं सव्व सुहं होइ नायव्वं ॥६२॥ तत्थ वि य जाइ संपन्नयाइ सेसाओ होंति असुहाओ। देवेसु किव्वि साइ सेसाओ होंति उ सुहाओ ॥६३॥