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आहारकं सलब्धीनां स्याच्चतुर्दश पूर्विणाम् । सर्व संसारि जीवानां ध्रुवे तैजस कार्मण ॥११४॥ .
प्रथम औदारिक शरीर तिर्यंच और मनुष्य का होता है । दूसरा यानि वैक्रिय शरीर देव और नारकी जीवों का होता है । कई लब्धि वालों को, वायु को, संज्ञि तिर्यंच और मनुष्यों को भी होता है। तीसरा आहारक शरीर लब्धि वाले चौदह पूर्व धारी मुनियों को होता है और चौथा-पांचवा सर्व संसारियों को होता है । (११३-११४) तत्त्वार्थ भाष्ये तु उक्तम
एकेतुआचार्याः नयवादापेक्षंव्याचक्षतेकार्मणमेवैकमनादिसम्बन्धम्। तेनैवैकेनजीवस्य अनादिः सम्बन्धः भवति इति।तैजसंतुलब्ध्यपेक्षं भवति।सा चतैजसलब्धिः न सर्वस्य भवति कस्यचिदेव भवति॥एतट्टीकालेशः अपि एवं एकीय मतेन प्रत्याख्यातमेव तैजसं शरीर अनादि सम्बन्धतया सर्वस्य च इति। या पुनः अभ्यवहृताहारं प्रति पाचक शक्तिः बिनाऽपिलब्ध्या सातुकार्मणस्यैव भविष्यति कर्मोष्णत्वात्। कार्मणं हि इदं शरीर अनेक शक्ति गर्भत्वात् अनुकरोति विश्वकर्मणः। तदेवहि तथा समासादित परिणतिः व्यपदिश्यते यदि तैजस शरीर तया ततो न कश्चिद्दोष इति॥अत्र भूयाविस्तरोऽस्ति। स तु तत्त्वार्थ वृत्तेः अवसेयः॥"
तत्त्वार्थ भाष्य में तो इस तरह कहा है कि-कई आचार्य नयवाद की अपेक्षा से कहते हैं कि- एक कार्मण शरीर के ही जीव के साथ में अनादि सम्बन्ध हैं, तेजस शरीर तो लब्धि के अपेक्षी को होता है। यह लब्धि सब को नहीं होती है। इसकी टीका का भावार्थ इस तरह से है- कइयों के मतानुसार तेजस शरीर का जीव का अनादि सम्बन्ध नहीं है। लब्धि बिना भी आहार का पाचन करने की जो क्रियाशक्ति दिखती है वह कार्मण शरीर को लेकर ही है क्योंकि शरीर कर्मों के कारण उष्ण है तथा कार्मण शरीर में अनेक शक्तियां है इससे यह विश्वकर्मा का अनुकरण करता है और इसी तरह परिणति-प्रौढ़ता प्राप्त करने से यदि कार्मण शरीर को तेजस शरीर कहने में आये तो कोई दोष नहीं है। यहां टीका में बहुत विस्तार है, वह तत्त्वार्थनी वृत्ति-टीका में पढ़ लेना चाहिए ।
युगपच्चैक जीवस्य द्वयं त्रयं चतुष्टयम् । स्याइहानां न तु पंच नाप्येकं भववर्तिनः ॥११॥