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तथोक्तं जीवाभिगम वृत्तौ
सव्वस्स उन्ह सिद्धं रसाइ आहार पाग जणगं च । तेअगलद्धि निमित्तं च तेअगं होइ नायव्वम् ॥१०३॥
जीवाभिगम सूत्र की टीका में कहा है कि- उष्णता से सिद्ध हुआ रसादि आहार को पचाने वाला है और तेजो लेश्या की लब्धि के निमित्त यह तेजस शरीर सर्व को होता है ऐसा समझना। (१०३) .
अस्मादेव भवत्येवं शीत लेश्या विनिर्गमः । स्यातां च रोषतोषाभ्यां निग्रहानुग्रहापितः ॥१०॥
इसी तरह तेजस शरीर में से शीत लेश्या भी निकलती है। इस शीत लेश्या के कारण प्राणी तुष्टमान हुआ हो तो अनुग्रह कर सकता है। जबकि पूर्व कही तेजो लेश्या द्वारा रोष-चढ़ जाने पर प्राणी निग्रह कर सकता है। (१०४) तथोक्तं तत्त्वार्थ वृत्तौ
"यदा उत्तर गुण प्रत्यया लब्धिः उत्पन्न भवति तदा परं प्रति दाहाय विसृजति रोष विषाध्मातो गोशालादिवत्। प्रसन्नस्तु शीत तेजसा अनुगृह्णति
इति॥"
तत्त्वार्थ वृत्ति में कहा है कि-जब उत्तर गुण की प्रतीति-जानकारी वाली लब्धि उत्पन्न होती है तब रोष रूपी विष से ज्वाजल्यमान बना मनुष्य गोशाला के समान शत्रु को जला कर भस्म करने के लिए तेजो लेश्या को छोड़ता है अथवा प्रसन्नतुष्टमान बना हो तो शीत लेश्या से अनुग्रह करता है।
क्षीर नीर वदन्योऽन्यं श्लिष्टा जीव प्रदेशकैः ।। कर्म प्रदेशा येऽनन्ताः कर्मणं स्यात्तदात्मकम् ॥१०॥ सर्वेषामपि देहानां हेतुभूतमिदं भवेत् । भवान्तर गतौ जीव सहायं च सतैजसम् ॥१०६॥
अब पाचवां व अन्तिम कार्मण शरीर, जीव प्रदेशों के साथ में क्षीर नीर-दूध पानी के समान परस्पर मिल गये कर्म प्रदेश रूप कार्मण शरीर होता है। यह कार्मण शरीर सारे शरीर का हेतुभूत है और तेजस तथा कार्मण दोनों साथ में मिलकर जीव को जन्मान्तर में जाने के लिए सहायक हो जाता है (१०५-१०६)
नन्वैताभ्यां शरीराभ्यां सहात्मायाति याति चेत् । . प्रविशत्रिरयन्वापि कुतोऽसौ तर्हि नेक्ष्यते ।।०७॥