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(७२)
समान बाहर का विभाग दिखाई देता है, अन्दर का विभाग नहीं दिखाई देता है।
(४८)
तृतीय योनिजाः स्तोकास्ततो द्वितीय योनयः । असंख्यध्नास्ततोऽनन्त गुणिता: स्युयोनयः ॥४६॥
तेभ्योऽप्यनन्त गुणिताः ख्याताः प्रथम योनयः । एवं शीत सचित्तादिष्वप्यल्प बहुतोह्यताम् ॥५०॥
तीसरी योनि से उत्पन्न हुए थोड़े होते हैं। ये दूसरी प्रकार की योनि से उत्पन्न हुए से असंख्यात गुने होते हैं। इससे अनन्तगुने अयोनि अर्थात् योनि से नहीं उत्पन्न हुए होते हैं । इससे भी अनन्त गुणा प्रथम प्रकार की योनि से उत्पन्न हुए होते हैं । इसी तरह शीत आदि तथा सचित आदि योनियों के विषय में उत्पन्न हुए की संख्या भी अल्प-अनल्प समझ लेना। (४८ से ५०)
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शीता चौष्णा च शीतोष्णा तत्तत्स्पर्शान्वयात् त्रिधा । सचिताचित्त मिश्रेति भेदतोऽपि त्रिधा भवेत् ॥ ५१ ॥
स्पर्शपरत्व से देखें तो इस योनि के तीन भेद होते हैं - शीत, उष्ण और शीतोष्ण (मिश्र)। सचित, अचित और मिश्र - इस तरह भी इसके तीन भेद होते हैं। (५१)
जीवप्रदेशैरन्योऽन्यानुगमेनोररी कृता ।
जीवद्देहादिः सचिता शुष्क काष्ठादिवत् परा ॥५२॥
परस्पर अनुगमन करके जीव प्रदेश से स्वीकार किया हो और जीवित शरीर आदि जिसमें हो ऐसी योनि सचित कहलाती है और जो सूखे काष्ठ (लकड़ी) के समान हो वह अचित योनि कहलाती है । (५२)
अत एवांगिभिः सूक्ष्मैस्त्रैलोक्ये निचितेऽपि हि । न तत्प्रदेशैर्यो नीनामचित्तानां सचित्तता ॥५३॥
इसलिए सूखे काष्ठ के समान होने के कारण तीन लोक में सूक्ष्म जन्तु भरे
हुए हैं फिर भी इसके प्रदेशों से अचित योनि सचित नहीं होती । (५३)
सचित्ताचित्त रूपा तु मिश्रा योनिः प्रकीर्तिता ।
नृतिरश्चा यथा योनौ शुक्रशोणित पुद्गलाः ॥५४॥
आत्मसाद्विहिता येऽस्युस्ते सचिताः परेऽन्यथा । सचित्ताचित्तयोगे तद्योनेर्मिश्रत्वमाहितम् ॥५५॥ युग्मम् ॥
सचित अचित रूप होने से योनि- 'मिश्र योनि' कहलाती है । दृष्टान्त के तौर