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पर मनुष्य और तिर्यंच की योनि में शुक्र तथा रुधिर के पुद्गल होते हैं उसमें से यदि पुद्गल आत्मा के साथ में जुड़े हों तो वह सचित है और अन्य 'अचित' है। इस तरह सचित अचित का योग जिसमें हो वह योनि 'मिश्रयोनि' कहलाती है । (५४-५५)
___ "योषितां किल नाभेरधस्तात् शिराद्वयं पुष्पमाला वैकक्षका कारमस्ति। तस्याधस्तात् अधोमुख संस्थित कोशा कारा योनिः। तस्याश्च बहिः चूतकलिकाकृतयो मांसमंजर्यों जायन्ते। ताः किल असृकस्यन्दित्वात् ऋतौ स्रवन्ति।तत्र केचित् असृजःलवाः कोशा कारकांयोनिं अनुप्रविश्य सन्तिष्ठन्ते पश्चात् शुक्रसंमिश्रान् तान् आहारयन् जीवाः तत्र उत्पद्यते। तत्र ये योन्या आत्मसात् कृता ते सचिताः कदाचित् मिश्र इति। ये तु न स्वरूपतामापादिताः ते अचिताः।अपरे वर्णयन्ति असृक् सचेतनं शुक्रमचेतनं इति।अन्ये ब्रुवते शुक्र शोणितम् अचित्तं योनि प्रदेशाः सचिताः इत्यतः योनि मिश्रा। इति तु तत्त्वार्थ वृत्तौ द्वितीये अध्याये॥" .
अर्थात् - स्त्रियों को नाभि के नीचे विकस्वर पुष्पों की माला के समान दो नाड़ी होती हैं उनके नीचे अधोमुख रही कोश आकार की योनि होती है। इसके आस-पास आम की मंजरी हो - इस तरह मांस का मंजर होता है। उस मंजर में से स्वाभाविक रूप में ऋतुकाल में रुधिर झरता है । उस रुधिर के कोई-कोई कण योनि में प्रवेश होते हैं और इसमें जब पुरुष का वीर्य मिलता है तब इस मिश्रण में से जीव उत्पन्न होता है जो इन कणों का आहार लेता है । उन कणों में से जो योनि में योनि रूप हो जाता है वह सचित्त है अथवा सचित्त अचित्त-मिश्र है। जो योनि में रहने पर भी योनि रूप नहीं होता वह अचित है। इस विषय पर कईयों का मत ऐसा है कि रुधिर सचित है और वीर्य अचित है। कई के मतानुसार दोनों अचित हैं, परन्तु योनि का प्रदेश सचित होता है उसमें प्रवेश करने से मिश्र भाव को प्राप्त करता है। इस तरह 'तत्त्वार्थ वृत्ति' के दूसरे अध्याय में कहा है।"
योनिस्त्रिधा मनुष्याणां शंखावर्तादि भेदतः । यस्या शंख इवावर्तः शंखावर्ता तु तत्र सा ॥५६॥ कर्मोत्रता भवेद्योनिः कूर्मपृष्ठमिवोन्नता । वंशीपत्रा तु संयुक्त वंशीपत्र द्वयाकृतिः ॥५७॥
मनुष्यों की योनि तीन प्रकार की है, जिसमें शंख के समान आवर्त होता है वह १- शंखावर्त है, जो कूर्म-कछुआ की पीठ के समान उन्नत-ऊँची हो वह २