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पर्याप्त होकर ही अर्थात् शरीर इन्द्रियादि सम्पूर्ण समर्थ होने के बाद ही मृत्यु प्राप्त करता है। (१४)
याहारादि पुद्गला नामादान परिणामयोः । जन्तोः पर्याप्ति नामोत्था शक्तिः पर्याप्तिरत्र सा ॥१५॥
पर्याप्ति का भावार्थ यह है- प्राणियों के आहारादि पुद्गलों को ग्रहण करने और ग्रहण करके वापिस परिणाम की जो शक्ति है उसका नाम पर्याप्ति है । (१५)
पुद्गलोपचयादेव भवेत्सा सा च षड्विधा ।
आहारांगेन्द्रिय श्वासोच्छ्वास भाषा मनोऽभिधाः ॥१६॥ ..
यह पर्याप्ति पुद्गलों के संचय से ही होती है और वह छः प्रकार से है - १- आहार पर्याप्ति, २- शरीर पर्याप्ति, ३- इन्द्रिय पर्याप्ति, ४- श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति, ५- भाषा पर्याप्ति और ६- मनः पर्याप्ति। (१६)
तत्रैषाहार पर्याप्तिर्ययादाय निजोचितम् ।. .. पृथक्खल रसत्वेनाहारं परिणतिं नयेत् ॥१७॥ प्राणी अपनी जिस शक्ति से उचित आहार ग्रहण करके फिर इसमें से मल और रस दोनों की अलग परिणति-पुष्टि करे वह आहार पर्याप्ति है। (१७)
वैक्रियाहार कौदारिकांग योग्यं यथोचितम् । तं रसीभूतमाहारं यया शक्त्या पुनर्भवी ॥१८॥ रस सम्मांस मेदोऽस्थिमज शुक्रांदि धातु ताम् ।
नयेद्यथा सम्भवं सा देह पर्याप्तिरुच्यते ॥६॥ युग्मम्।
प्राणी अपनी जिस शक्ति द्वारा अपनी वैक्रिय, आहारक अथवा औदारिक शरीर के योग्य आहार लेकर, वह आहार रस रूप होता है, उसमें से रुधिर, मांस, मज्जा, शुक्र आदि धातु परिणाम रूप उत्पन्न हों, उस शक्ति का नाम 'शरीर' पर्याप्ति है। (१८-१६)
धातुत्वेन परिणतादाहारादिन्द्रियोचितात् ।। आदाय पुद्गलास्तानि यथास्थं प्रविधाय च ॥२०॥ ईष्टे तद्विषयज्ञप्ती यया शक्त्या शरीरवान् । पर्याप्तिः सेन्द्रियाव्हाना दर्शिता सर्वदर्शिभिः ॥२१॥
इस तरह इन्द्रिय की योग्यता अनुसार लिये हुए आहार की धातु बनकर उस धातु में से पुद्गलों को लेकर, उनको यथास्थित करके, प्राणी अपनी जिस शक्ति