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(६७) द्वारा इन्द्रिय सम्बन्धी ज्ञान-जानकारी प्राप्त करता है, वह शक्ति 'इन्द्रिय पर्याप्ति' कहलाती है। (२०-२१)
इति संगृहणी वृत्यभिप्रायः ॥ यह अभिप्राय संग्रहणीकार ने कहा है।'
प्रज्ञापना जीवाभिगम प्रवचन सारोद्धार वृत्यादिषु तु यया धातु तया परिणमितमाहार मिन्द्रिय तया परिणमयति सा इन्द्रिय पर्याप्तिः इति एतावदेवदृश्यते॥
पन्नवणा, जीवाभिगम और प्रवचन सारोद्धार की वृत्ति आदि ग्रंथो में तो इतना ही शब्द कहा है 'आहार में से धातु बनने के बाद इसमें से इन्द्रिय परिणाम हो, ऐसी प्राणी की शक्ति इन्द्रिय पर्याप्ति कहलाती है।'
ययोच्छ्वासार्ह मादाय दलं परिणमय्य च । - तत्तयालम्ब्य मुंचेत्सोच्छास पर्याप्तिरुच्यते ॥२२॥
इस धातु में से प्राणी जिस शक्ति द्वारा उच्छवास के उचित दल लेकर परिवर्तन करे, ऐसा आलम्बन ले और छोड़े उसे उच्छ्वास पर्याप्ति कहते हैं । (२३)
ननु देहोच्छासनाम कर्मभ्यामेव सिद्धयतः । देहोच्छ्वासौ किमेताभ्यां पर्याप्तिभ्यां प्रयोजनम् ॥२३॥
यहां शंका उपस्थित होती है कि देह और उच्छ्वास दोनों जब देह नामकर्म और उच्छ्वासनाम कर्म से ही सिद्ध होते हैं तब इन दो पर्याप्तियों की क्या आवश्यकता है ? (२३)
अत्रोच्यते पुद्गलानां गृहीतानामिहात्मना । साध्या परिणतिर्दे हतया तन्नाम कर्मणा ॥२४॥ आरब्धांग समाप्तिस्तु तत्पर्याप्त्या प्रसाध्यते । एव भेदः साध्य भेदाद्देह पर्याप्ति कर्मणो ॥२५॥ एवमुच्छ्वासलब्धिः स्यात्साध्या तन्नाम कर्मणा। साध्यमुच्छ्वास पर्याप्तेस्तस्या व्यापारणं पुनः ॥२६॥ सतीमप्युच्छ्वास लब्धिमुच्छ्वास नाम कर्मजाम् । व्यापारयितुमीशः स्यात्तत्पर्याप्त्यैव नान्यथा ॥२७॥ सतीमपि शरक्षेपशक्ति नैव भटोऽपि हि । विना चापादान शक्ति सफलीकर्तुमीश्वरः ॥२८॥