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उत्कृष्ट छ: महीने तक होता है। सिद्धों का च्यवन नहीं होता क्योंकि वे सदा शाश्वत होते हैं । (१४०)
सर्वस्तोका क्लीव सिद्धास्तेभ्यःसंख्य गुणाधिकाः। स्त्रीसिद्धा पुनरेभ्यः पुंसिद्धाः संख्य गुणाधिकाः ॥१४१॥
नपुंसक सिद्ध सर्व से अल्प है, स्त्रीलिंग से सिद्ध हुए हैं उससे संख्यात गुना हैं और पुरुषलिंग सिद्ध उससे संख्यात गुना हैं । (१४१)
सर्वस्तोका दक्षिणस्यामुदीच्यां च मिथः समाः । प्राच्या संख्यगुणाः पश्चिमायां विशेषतोऽधिकाः॥१४२॥
दक्षिण दिशा में सर्व से अल्प संख्या में सिद्ध हुए हैं, उत्तर में दक्षिण जितने ही सिद्ध हुए हैं, पूर्व दिशा में इससे संख्यात गुणा है और पश्चिम दिशा में इससे अधिक विशेष रूप में सिद्ध हुए हैं । (१४२) ।
न तत्सुखं मनुष्याणां देवानामपि नैव तत् । यत्सुखं सिद्ध जीवानां प्राप्तनां पदमव्ययम् ॥१४३॥ त्रै कालिकानुत्तरान्त निर्जराणां त्रिकालजम् । भुक्तं भोग्यं भुज्यमानमनन्तं नाम यत्सुखम् ॥१४४॥ पिण्डीकृतं तदैक त्रानन्तैर्वर्गेश्च वर्गितम् । शिव सौख्यस्य समतां लभते न कदाचन ॥१४५॥ सर्वाता पिण्डितः सिद्ध सुख राशिर्विकल्पतः । . अनन्त वर्ग भक्तोऽपि न मायाद् भुवनत्रये ॥१४६॥
अव्यय पद को प्राप्त करने वाले सिद्ध के जीवों को जो सुख होता है वह मनुष्यों को अथवा देवों को कुछ भी नहीं होता । अन्तिम अनुत्तर विमान तक के तीन काल के देवों का भोगा हुआ, भोगा जाता और भविष्यकाल में भोगने वाले का जो त्रिकालिक अनन्त सुख है उसे एक स्थान पर एकत्रित करके अनन्त वर्ग किया जाय तो फिर भी मोक्ष सुख के बराबर नहीं आता अथवा विकल्प से सिद्ध के सर्व सुखों को एकत्रित करके इसका अनन्त वर्गमूल निकालने में आए तो वह तीन जगत् में समावेश नहीं हो सकता है। (१४३ से १४६) वर्ग विभागश्चैवम
स्युः षोडशचतुर्भक्ताश्चत्वारो वर्गभागतः । द्वावेव परिशिष्येते च्वारोऽपि द्विभाजिताः ॥१४७॥