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तथा-सिद्धाव गाह क्षेत्रस्य तस्यैकैकं प्रदेशकम् ।
त्यक्त्वा स्थितास्तेऽप्यनन्ता एवं द्वयादि प्रदेशकान् ॥११२॥ तथा सिद्ध के अवगाह क्षेत्र के एक-एक प्रदेश को छोड़कर जा रहे हैं, वे भी अनन्त हैं। इसी तरह दो, तीन आदि प्रदेशों को छोड़कर रहे हैं । वे भी अनन्त हैं। (११२) एवं च- प्रदेश वृद्धि हानिभ्यां येऽवगाढा अनन्तकाः ।
पूर्ण क्षेत्रवगाढेभ्यः स्युस्तेऽसंख्य गुणाधिकाः ।।११३॥ इसी तरह से प्रदेश ज्यादा अथवा कम जो अनन्त सिद्ध अवगाही रूप में रहे हैं, वे पूर्ण क्षेत्र अवगाही में रहे सिद्ध से असंख्यात अधिक हैं । (११३)
ततश्च- एकः सिद्धः प्रदेशैः स्वैः समग्रैरति निर्मलैः। ।
__सिद्धाननन्तान् स्पृशाति व्यवगाढैः परस्परम् ॥१४॥ तेभ्योऽसंख्यगुणान् देशप्रदेशैः स्पृशति ध्रुवम् । : क्षेत्रावगाहनाभेदैरन्योऽन्यैः पूर्वदर्शितै ॥११५॥
इस प्रकार से एक सिद्ध अपने अत्यन्त निर्मल और परस्पर अवगाह सर्व प्रदेशों से अनंत सिद्धों का स्पर्श कर सकता है और इससे असंख्य गणाओं के पूर्वदर्शित अन्य-अन्य कम ज्यादा क्षेत्रावगाहना के भेदों को लेकर देश प्रदेशों से स्पर्श करता है। (११४-११५) तथोक्तं प्रज्ञापनायां औपपातिके आवश्यके च ।
फुसइ अणन्ते सिद्धे सव्वपए सेहिं नियमसो सिद्धो । ते वि असंखिज गुणा देसपए सेहिं जे पुट्ठा ॥
प्रज्ञापना सूत्र में उव्वाइ सूत्र में तथा आवश्यक सूत्र में भी इस बात का समर्थन करते हैं - सिद्ध का जीव निश्चय से सर्व प्रदेशों से अनंत सिद्धों को स्पर्श करते हैं और इनका भी देश प्रदेशों से जिसका स्पर्श किया है, ऐसे असंख्य सिद्धों का स्पर्श करता है।
अशरीर जीवघना ज्ञान दर्शन शालिना । साकारेण निराकारेणोपयोगेनलक्षिताः ॥११६॥ ज्ञानेन केवलेनैते कलयन्ति जगत्रयीम । दर्शनेन च पश्यन्ति केवले नैव केवलाः ॥११७॥ युग्मम् ॥