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इह भवभिन्नगारो कम्मवसाओ भवंतरे होइ । नय तं सिद्धस्स तओ तंमीतो से तयागारो ॥ जं संठाणं तु इहं भवं चयंतस्स चरम समयम्मि ।
आसी अ पएसघणं तं संठाणं तहिं तस्स ॥
इस विषय में आवश्यक सूत्र की नियुक्ति टीका में कहा है कि सिद्ध के जीवों की अवगाहना करते पूर्व जन्म से तीसरा विभाग कम होता है अर्थात् पूर्व जन्म के दो तृतीयांश होता है। इस तरह जरा मृत्यु से मुक्त सिद्धों का संस्थान होता है। जीव सोया हो, खड़ा हो अथवा बैठा हो, जिस स्थिति में रहे, काल धर्म प्राप्त करे, उसी ही स्थिति में सिद्धत्व रूप में उत्पन्न होता है। यहां भी फिर कोई शंका करता है कि- जीव का इस जन्म में जैसा आकार होता है, इससे भिन्न आकार अगले जन्म में होता है वह कर्म के वश से होता है, परन्तु सिद्ध का तो कोई कर्म ही नहीं रहा तो फिर सिद्ध का वैसा आकार ही किस तरह होता है ? इसका उत्तर देते हैं किइस जन्म में च्यवन के समय में चरम-अन्तिम समय में जो संस्थान होता है वैसा ही प्रदेश धन संस्थान उनका वहां भी होता है।
शतानि त्रीणि धनुषां त्रयस्त्रिंशद्धनूंषि च । । धनुस्त्रिभागश्च परा सिद्धानामवगाहना ॥१२२॥ जघन्याष्टांगुलोपेत हस्तमाना प्ररूपिता । जघन्योत्कृष्टयोरन्तराले मध्या त्वनेकधा ॥१२३॥ .. षोडशांगुलयुक्ता या मध्या कर चतुष्टयी । आगमे गीयते सर्वमध्यानां सोपलक्षणम ॥१२४॥
सिद्धों के जीव की उत्कृष्ट अवगाहना ३३३, धनुष्य प्रमाण की होती है। जघन्य अवगाहना एक हाथ और आठ अंगुल की होती है। मध्यम अर्थात् उत्कृष्ट
और जघन्य के बीच की अवगहना अनेक प्रकार की होती है। आगम में मध्यम अवगाहना चार हाथ और सोलह अंगुल की कही है। वह सर्व मध्यम के उपलक्षण से अर्थात् तीर्थंकर की जघन्य अवगाहना के अपेक्षी कही है। (१२२ से १२४)
प्राच्ये जन्मनि जीवानां या भवेदवगाहना । तृतीय भागन्यूना सा सिद्धानामवगाहना ॥१२५॥ .
अन्तिम मनुष्य जन्म में जीव की जो अवगाहना होती है उसका दो तृतीयांश भाग सिद्ध की अवगाहना होती है।