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(५७) उत्कृष्टा च भवे प्राच्ये धनुः पंच शतीमिता । मध्यमा च बहुविधा जघन्या हस्तयोर्द्वयम् ॥१२६॥ जघन्या सप्त हस्तैव जिनेन्द्राणामपेक्षाया । त्र्यंशोनत्वे किलौतासां ताः स्युः सिद्धावगाहनाः ॥२७॥ यग्मम् ।
पूर्व जन्म में वह उत्कृष्ट पांच सौ धनुष्य की हो, मध्यम अनेक प्रकार की हो और जघन्य दो हाथ की हो अथवा जिनेश्वर भगवन्त की अपेक्षा से जघन्य सात हाथ की हो, उस अवगाहनाओं का दो तृतीयांश ही उन सिद्धों की अवगाहना होती है। यह अभिप्राय औपपातिक उपांग का है। (१२६-१२७) एतद्भिप्रेत्यैव औपपातिकोपांगे उक्तम्
जीवाणं भंते सिज्झमाणा कयरं मि उच्चत्ते सिज्झन्ति । गोअम जहण्णेणं सत्तरयणीए उक्कोसेणं पंचधणु सइए सिज्झन्ति ॥ मरु देवा कथं सिद्धा नन्वेवं जननी विभोः । साग्र पंचाचापशतोत्तुंगा नाभि समोच्छ्या ॥१२८॥ संघयणं संठाणं उच्चत्तं चेव कुलगरेहिं समम् इति वचनात् ॥ अत्र उच्यते - स्त्रियो ह्यत्तमंसं स्थानाः पुंसः कालाहसंस्थितेः ।
किंचिदन प्रमाणाः स्यु भेरु नोच्छ्रयेति सा ॥१२६॥ गजः स्कन्धाधिरूढत्वान्मनाक्संकुचितेति वा । . पंचशापशंतोच्चैव सेति किंचिन्न दूषणम् ॥१३०॥
अयं च भाष्य कृदभिप्रायः॥ यहां शंका करते हैं कि- जब 'उत्कृष्ट पांच सौ धनुष्य की क़ाया वाले सिद्धि प्राप्त करते हैं" इस तरह कहते हैं तो प्रथम तीर्थंकर की माता मरूदेवी जो नाभिराजा पांच सौ धनुष्य से अधिक ऊँचे थे, वह किस तरह सिद्ध हो सकता है? 'संहनन, संस्थान तथा ऊँचाई कुलकरों के समान होती है' इस शास्त्र वचन के अनुसार निश्चय ही मरू देवी माता नाभिराज जितने ऊँचे थे । इस शंका का समाधान इस तरह करते हैं - मरू देवी नाभिराजा से कम ऊँचाई वाली थी क्योंकि स्त्रियों की कितनी भी ऊँचाई हो परन्तु उन पुरुषों की अधिक से अधिक उच्चार में कम ही होती है। अथवा हाथी के स्कंध पर चढ़ने से वह जरा संकोच युक्त थे इसलिए उनका अधिक मान न होने पर भी पांच सौ धनुष्य ही थे । इस तरह समझना। यह अभिप्राय भाष्यकार का है। (१२८ से १३०)