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सिद्धनामिन्द्रियोच्छवासादयः प्राण न यद्यपि ।
ज्ञानादि भाव प्राणानां योगाज्जीवास्तथाप्यमी ॥७६॥
सिद्धों को यद्यपि इन्द्रिय और श्वासोच्छ्वास रूप प्राण नहीं है अर्थात् द्रव्य प्राण नहीं है, फिर भी उनको ज्ञान आदि भाव प्राण होता है। अत: वे भी जीव कहलाते हैं । (७६)
अलोकस्खलिताः सिद्धालोकाग्रे च प्रतिष्ठिताः । इह संत्यज्य देहादि स्थितास्तत्रैव शाश्चताः ॥७७॥
अलोक से स्खलित होने से अर्थात् अलोक में गति-गमन न होने से वे लोक के अग्र भाग में रहते हैं । शरीर आदि को यहां त्याग कर वे शाश्वत स्थान में ही रहते हैं । (७७)
ते ज्ञानावरणीयाद्यै मुक्ताः कर्मभिरष्टभिः । ज्ञान दर्शन चारित्राद्यनन्ताष्टक संयुताः ॥७८॥
वे सिद्धात्मा ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों से मुक्त होते हैं और ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि आठ अनन्त वस्तुओं से युक्त हैं । (७८) तथोक्तं गुण स्थान क्रमारोहे
अनन्तं केवल ज्ञानं ज्ञानावरण संक्षयात् । अनन्तं दर्शनं चापि दर्शनावरण क्षयात् ॥७६॥ क्षायिकें शुद्ध सम्यकत्व चारित्रे मोह निग्रहात् । अनन्ते सुखवीर्ये च वेद्यविघ्नक्षयात्क्रमात् ॥८०॥ आयुषः क्षीण भावत्वात् सिद्धानामक्षया स्थितिः। नाम गोत्रा क्षयादेवा मूर्त्तानन्तावगाहना ॥१॥ रोग मृत्यु जराधर्तिहीना अपुनरुद्भवाः । अभावात्कर्म हेतुनां दग्धे बीजे हि नांकुर ॥२॥
गुण स्थान क्रमारोह नामक ग्रन्थ में कहा है कि- ज्ञान आवरण के क्षय होने से अनंत केवल ज्ञान और दर्शन होता है। मोह के विनाश से क्षायिक शुद्ध सम्यक्त्व और चारित्र प्राप्त होता है। वेदनीय और अन्तराय कर्मों का क्षय होने से अनुक्रम से अनन्त सुख और अनन्त वीर्य प्राप्त होता है। आयुकर्म क्षीण होने से अक्षय स्थिति प्राप्त होती है। तथा नाम कर्म और गोत्र कर्म के क्षय से अनंत अवगाहना होती है। कर्म के हेतुओं के अभाव से जन्म जरा मृत्यु आदि के दुःख खतम हो जाते हैं, अतः उसे