________________
(४८)
· पुनः जन्म धारण नहीं करना पड़ता। क्योंकि जब बीज ही जल जाता है तो फिर अंकुर की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? अर्थात् नहीं होती। (७६ से ८२) .
यावन्मात्रं नरक्षेत्रं तावन्मात्रं शिवास्पदम् । यो यत्र म्रियते तत्रैवोर्ध्वं गत्वा स सिद्धयति ॥३॥ उत्पत्योर्ध्वं सम श्रेण्या लोकान्तरस्तैरलंकृतः । यत्रैकस्तत्र तेऽनन्ता निर्बाधा. सुखमासते. ॥६॥ युग्मम्।
जितने विस्तार में मनुष्य का क्षेत्र है उतने ही (पैंतालीस लाखं योजन) मोक्ष का स्थान है। जो जहां मृत्यु प्राप्त करता है वह वहां से सम श्रेणि में ऊँचे जाकर सिद्ध होता है । इन सिद्धों से ही लोक का अग्रभाग शोभ रहा है। जितने में एक रह सकता है उतने में ये अनंत भी बाधा रहित सुख पूर्वक रह सकते हैं । (८३-८४) तथोक्त तत्त्वार्थ भाष्ये
कृत्स्न कर्मक्षयादूर्ध्वं निर्वाणमधि गच्छति । यथा दग्धेन्धनो वह्निः निरूपादान सन्ततिः ॥८॥ तदनन्तरमेवोर्ध्वमालोकान्तात्स गच्छति । पूर्व प्रयोगा संगत्वबन्धच्छेदोर्ध्व गौरवैः ॥८६॥ कुलाल चक्रे दोलायामिषौ चापि यथेष्यते । पूर्व प्रयोगात्कर्मेह तथा सिद्धगतिः स्मृता ॥८७॥
तत्त्वार्थ भाष्य में कहा है कि इंधन जल जाने से उपादान कारण गया अर्थात् अग्नि जैसे निर्वाण प्राप्त करता है- शान्त हो जाता है वैसे क़र्म सवै जेल जाने सेक्षीण होने से आत्मा निर्वाण प्राप्त करता है और उसके बाद ही आत्मा- १- पूर्व प्रयोग द्वारा, २- आसंग छोड़ देने से, ३- बंधन छेदन करने और ४- अपना उर्ध्वगामी स्वभाव द्वारा अन्तिम लोकान्त तक उच्चे जाता है। तथा पूर्व प्रयोग से कुंभार के चक्र झूला-हिंडोले और बाण के समान गति सद्दश सिद्ध गति समझना। (८५-८७)
मृल्लेप संग निर्मोक्षाद्यथा दृष्टाप्स्वलाबुनः । कर्म संग विनिर्मोक्षात्तथा सिद्ध गतिः स्मृता ॥८॥. एरंडयन्त्र पेडासु बन्धच्छे दाद्यथा गतिः ।
कर्म बन्धन विच्छेदात् सिद्धस्यापि तथेष्यते ॥६॥ मिट्टी के लेप का संग छोड़ने से जैसे तूबडा पानी के ऊपर तैरता है वैसे ही