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के विषय में आता है और इसे क्षयोपशम होता है तभी ही इसमें लब्धि (शक्ति)
और करण-कार्य के अनुरूप ज्ञान उत्पन्न होता है । परन्तु यह वीर्य जब चला जाय तब समझना कि यही कर्म आत्मा को आवरण करता है । शैवाल जैसे जल को और कीचड़ जैसे निर्मल दर्पण को आवरण करता है वैसे यह आत्मा को करता है । (७१ से ७३)
इस तरह शंका का समाधान करते हैं । अब प्रस्तुत विषय कहते हैं -
अथ प्रकृतम्द्विधा भवन्ति ते जीवाः सिद्ध संसारि भेदतः । सिद्धा पंचदश विधास्तीतीर्थादि भेदतः ॥७४॥
उस जीव के दो भेद होते हैं - १- सिद्ध और २- संसारी। उसमें सिद्ध के तीर्थ अतीर्थ आदि पंद्रह भेद होते हैं । अतः कहा है कि-. ..
जिण अजिण तित्थतित्था गिहि अन्नस लिंग थी नर नपुंसा। .
पत्तेय सयं बुद्धा. बुद्धवो हिक्कणिक्काय ॥
१- जिन सिद्ध- तीर्थंकर पदवी प्राप्तकर मोक्ष में जाते हैं । २- अजिन सिद्ध- सामान्य केवली बनकर मोक्ष जाना। ३- तीर्थ सिद्ध-तीर्थकर के केवल ज्ञान की प्राप्ति के बाद मोक्ष जाने वाला । ४- अतीर्थंकर- तीर्थंकर को केवल ज्ञान प्राप्त होने के पहले मोक्ष जाने वाले । ५- गहिलिंग सिद्ध- गृहस्थ रूप में से मोक्ष जाना।६-अन्यलिंग सिद्ध-सन्यासी- तापस आदि वेश से मोक्ष जाना।७-स्वलिंग सिद्ध- साधुपने में से मोक्ष जाना। ८-स्त्री सिद्ध- स्त्री वेद वाला मोक्ष जाना। ६- पुरुष सिद्ध- पुरुष वेद वाले जीव का मोक्ष में जानो। १०- नपुंसक सिद्धनपुंसक रूप में मोक्ष जाना। ११- प्रत्येक बुद्ध सिद्ध- कोई भी पदार्थ देखकर प्रतिबोध प्राप्त कर चारित्र लेकर मोक्ष जाना। १२- स्वयं बुद्ध सिद्ध- गुरु के उपदेश बिना स्वयं अपने आप जाति स्मरण आदि से प्रतिबद्ध होकर मोक्ष जाना। १३- बोध बोधित सिद्ध- गुरु के उपदेश द्वारा वैराग्य प्राप्त कर मोक्ष जाना। १४- एक सिद्ध- एक समय में एक ही मोक्ष जाना और १५- अनेक सिद्ध- एक समय में अनेक मोक्ष जाना । (७४) .
जीवन्तीति स्मृता जीवा जीवनं प्राणधारणम् । । ते च प्राण द्विधा प्रोक्ता द्रव्यभाव विभेदतः ॥७॥
जो जीता है उसे जीव कहते हैं जीना अर्थात् प्राण होना - धारण करना। वह प्राण दो प्रकार का है - द्रव्यप्राण और भाव प्राण। (७५)