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इसकी कुछ प्रभा तो छुपी नहीं ही होती है। नहीं तो रात्रि अथवा दिन की पहचान नहीं होती । (५६)
इयं चाल्पीयसी ज्ञानमात्राद्यसमये भवेत् । अपर्याप्त निगोदानां सूक्ष्माणां क्रमतस्ततः ॥६०॥ शेषैकाक्षद्वित्रिचतुष्पंचाक्षादिषु मात्रया । वर्धमानेन्द्रिय योगलब्धि वृद्धिव्यपेक्षया ॥६१॥ क्षयोपशम वैचित्र्यानाना रूपाणि बिभ्रती। ... सर्वज्ञेयग्राहिणी स्याद् धातिकर्म क्षयेण सा ॥६२॥
- त्रिभिविशेषकम् । यह ज्ञान मात्रा सूक्ष्म अपर्याप्त निगोद को आद्य क्षण में अत्यन्त अल्प होता है और बाद में क्रमानुसार शेष एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों को विषय वृद्धि होते इन्द्रिय के योग की प्राप्ति होती है और वृद्धि की अपेक्षा से क्षयोपशम की विचित्रता के कारण विविध रूप धारण करता है और धातिकर्म का क्षय होने से सर्वज्ञ रूप में ग्रहण करने वाला होता है। (६० से ६२)
नन्वेवमात्मनो ज्ञानं यदि लक्षणमुच्यते । अभेदः स्यात्तदनयोः सास्त्रावृषभयोरिव ॥६३॥ एवं चास्य सदा ज्ञानमिष्यतेऽखिल वस्तुगम् । ज्ञान रूपो न जानातीतेतद्युक्ति सहं न यत् ॥६४॥ कथं च ज्ञान रूपस्यात्मनः स्युः संशयस्तथा ।
अव्यक्त बोधाबोधौ च किञ्चिद् बोधविपर्ययाः ॥६५॥
यह शंका करते हैं कि-जब ज्ञान आत्मा का लक्षण है ऐसा कहोगे तो गल कंबल (बैल आदि पशुओं के गले के नीचे लटकता भाग कंबल) और बैल के समान आत्मा और ज्ञान का अभेद होगा। इस तरह तो आत्मा को सर्व वस्तु के सदा ज्ञान वाला कहते हो और ज्ञान रूप आत्मा यह नहीं जानता यह बात युक्ति युक्त नहीं है, न ऐसा बनता है । तथा 'ज्ञान रूप आत्मा' कहते हैं तो फिर इसे संशय या अप्रकट ज्ञान या अज्ञान अथवा किंचत् ज्ञान या विपरीत ज्ञान कैसे हो सकता है? (६३ से ६५) अत्रोच्यते- सत्यप्यस्य चिदात्मत्वे नोपयोगो निरन्तरम् ।
भवत्यावरणीयानां कर्मणा वशतः खलु ॥६६॥