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यहां शंका का समाधान करते हैं कि- आत्मा ज्ञान रूप होने पर भी वह आवरणीय कर्मों के वश में होने से उसका निरंतर उपयोग नहीं होता क्योंकि आठ प्रकार के कर्मों में १- ज्ञानावरणीय, २- दर्शनावरणीय, ३- मोहनीय और ४- अन्तराय- ये चार घाति कर्म कहलाते हैं । ये आत्मा के ज्ञान, दर्शन आदि गुणों का घात-नाश करने वाले हैं । (६६) तथाहि- आत्मा सर्व प्रदेशेषुत्वक्त्वां शानष्टमध्यगान ।
प्रक्वथ्यमानोदकवत् सदा विपरि वर्तते ॥६७॥ ततः स चिरमेकस्मिन्न वस्तुन्युपयुज्यते । अर्थान्तरोपयुक्तः स्याच्चपलः कृ कलासवत् ॥१८॥ उत्कर्षेणोपयोगस्य कालोप्यान्त मुहूर्तिकः । उपयोगान्तरं याति स्वभावात्तदनन्तरम् ॥६६॥ न सर्वमपि वेच्येष प्राणी कर्मावृतो यथा । नार्कस्याभ्राभि भूतस्य प्रसरन्त्यभितः प्रभाः ॥७०॥
यह आत्मा तो मध्य के आठ प्रदेशों के अलावा अन्य सर्व प्रदेशों के विषय में उबलते जल के समान उथल पुथल हुआ करता है और इससे उसे चिरकाल तक एक वस्तु में उपयोग नहीं रहता, परन्तु गिरगिट (छिपकली जैसा जन्तु) समान चपल होकर अन्य-अन्य पदार्थों के विषय में 'उपयुक्त' होता है। यद्यपि यह उपयोग अर्थात् उपयुक्तता का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त का है और उसके बाद तो यह आत्मा पुनः अन्य विषय में उपयुक्त होता है। जैसे बादल से आच्छादित हुए सूर्य की कान्ति सर्वत: नहीं फैलती वैसे ही कर्मों से आच्छादित हुआ सर्व बात को नहीं जान सकता। (६७ से ७०)
संशयाव्यक्त बोधद्या अप्यस्य कर्मणा वशात् । कुर्वतां ज्ञान वैचित्र्यं क्षयोपशम भेदतः ॥७१॥ किं च- आभोगाना भोगोद् भव वीर्यवतो तदा क्षयोपशमः ।
. लब्धिकरणानुरूपं तदात्मनो ज्ञानमुद्भवति ॥७२॥ वीर्यापगमे च पुनस्तदेव कर्मावृणोत्यपाकीर्णम् ।
शैवल जालमिवाम्भो दर्पणमिव विमलितं पंकः ॥७३॥
तथा आत्मा को संशय होना, अप्रकट अज्ञान, किंचित् ज्ञान आदि होता है । यह भी क्षयोपशम के भेद से विचित्र ज्ञान उत्पन्न करते कर्मों के यह आत्मा वश में है, इससे होता है और आभोग अथवा अनाभोग से उद्भव हुआ वीर्य यह आत्मा