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(४६) गति रूप कर्मों का संग छोड़ने से सिद्धों की गति समझना। रेंडी में, यन्त्र में और पेडापुट में बन्धन छोड़ने से जैसी गति करता है वैसे ही कर्म बन्धन के छेदन करने से सिद्ध की गति समझना। (८८-८६)
व्याघ्रपाद बीज बन्धनच्छेदात् यन्त्र बन्धनच्छेदात् पेडा बन्धनच्छेदात् च गतिर्दृष्टा मिंजा काष्ठा पेडा पुटानाम् एवं कर्म बन्धन विच्छेदात् सिद्धस्य गतिः इति भावः।
रेंडी के बीज के बंधन छेदन करने से, यंत्र के बंधन छेदन करने से तथा पेडा के बन्धन के छेदन से बीज, काष्ठ और पेडा पुट के समान उछलकर ऊँचा जाने रूप गति होती है, उसी तरह ही कर्म बन्धन के छेदन होने से सिद्धों की गति समझना। ऐसा भावार्थ है।
ऊर्ध्व गौरवधर्माणो जीवा इति जिनोत्तमैः । अधोगौरव धर्माणः पुद्गला इति चोदितम् ॥६०॥
'ऊर्ध्वगमन एवं गौरवं धर्मः स्वभावो जीवानाम्। पुद्गलास्तु अधोगमन धर्माण इति सर्वज्ञवचनम् इति भावः।'. .
- जिन भगवान के वचन हैं कि जीव ऊर्ध्व गति परिणाम वाला है और पुद्गल अधोगति परिणाम वाला है अर्थात् ऊर्ध्व गमनं करना यही जीव का स्वरूप है और अधोगमन यह पुद्गलों का स्वभाव है ऐसा सर्वज्ञ भगवन का वचन है। ऐसा भावार्थ है। (६०).
याघस्तीर्यगूर्ध्वं च लोष्टवाय्वनि वीतयः । स्वभावतः प्रवर्तन्ते तथोर्ध्वगतिरात्मनः ॥११॥ अवस्तु गति वैकृ त्यमेषां यदुपलभ्यते । कर्मण प्रतिघात्तच्च प्रयोगाच्च तदिष्यते ॥१२॥ अधस्तिर्यगथोर्ध्वं च जीवानां कर्मजा गतिः । ऊर्ध्वमेव तु तद्धर्मा भवति क्षीण कर्मणाम् ॥६३॥
पत्थर आदि वजनदार वस्तुओं का स्वभाव अधो गमन है, वायु का स्वभाव तिर्यग् गमन है और अग्नि की ज्वाला का स्वभाव ऊर्ध्व गमन है; वैसे ही आत्मा का भी अनादि स्वभाव ऊर्ध्व गमन है। इसलिए कभी किसी समय में इसके स्वभाव में विकार मालूम हो तो वह कर्म के प्रतिघात से और प्रयोग से समझना। जीव की तिर्की, ऊर्ध्व अथवा अधो गति होना वह उसके कर्मों के ही कारण है। स्वाभाविक ऊर्ध्व गति तो जिसके कर्मों का क्षय होता है उसकी ही होती है। (६१ से ६३)