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(४३)
अथ जीवास्ति कायस्य स्वरूपं वच्मि तस्य च ।
चेतना लक्षणो जीव इति सामान्य लक्षणम् ॥५३॥
अब जीवास्तिकाय के विषय में कुछ स्वरूप कहते हैं - जीव चेतना लक्षण वाला है । यह जीव का सामान्य लक्षण-व्याख्या है । (५३)
मति श्रुतावधिमनपर्याय के वलान्यपि । मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं विभंगज्ञानमित्यपि ॥५४॥ अचक्षुश्चक्षुरवधिकेवल दर्शनानि च । द्वादशामी उपयोगा विशेषाजीव लक्षणम् ॥५५॥ युग्मम्।
१- मतिज्ञान, २-. श्रुतज्ञान, ३- अवधिज्ञान, ४- मनः पर्यवज्ञान, ५केवलज्ञान,६- मति अज्ञान,७- श्रुत अज्ञान,८-विभंगज्ञान,६- अचक्षु दर्शन, १०चक्षु दर्शन, ११- अवधि दर्शन तथा १२- केवल दर्शन - ये बारह प्रकार का जिसको उपयोग हो वह जीवात्मा है। यह जीव का विशेष लक्षण है। इसमें प्रथम पांच ज्ञान सम्यक्त्व के आश्रयी कहे हैं, उसके बाद ६-७-८ ये तीन मिथ्यात्व आश्रयी हैं। (५४-५५)
उपयोगं बिना कोऽपि जीवो नास्ति जगत्रये । अक्षरानन्त भागो यद्व्यक्तो निगोदिनामपि ॥५६॥
तीन जगत् में उपयोग बिना का कोई भी जीव नहीं है, क्योंकि अक्षर का अनन्तवां भाग निगोद के जीव को भी व्यक्त होता है । (५६)
तं चाक्षरानन्त भागमपि त्रैलोक्यवर्तिनः । न शक्नुवन्त्या वरितुं पुद्गलाः कर्मता गता ॥५७॥
तीन लोक में रहे कर्म पुद्गल (स्वयं के एकत्र-संयुक्त बल से भी) इस अक्षर के अनन्तवें भाग का भी आवरण करने में समर्थ नहीं हैं । (५७)
एषेऽप्यवियते चेत्तत् स्याज्जीवाजीवयोनभित । अक्षरं त्विह साकारे तरोपयोग लक्षणम् ॥५८॥
यदि आवरण में आए तो फिर जीव, अजीव ऐसा भेद नहीं रहता और अक्षर-ज्ञान का तो साकार निराकार का उपयोग रूप लक्षण है। (५८)
खेर्यथातिसान्द्राभ्रच्छन्नस्यापि भवेत्प्रभा । कियत्यनावृता रात्रि दिना भेदोऽन्यथा भवेत् ॥५६॥ उदाहरण के तौर पर - सूर्य अत्यन्त प्रगाढ़ बादलों में छिपा हो तो भी