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(४१) अपि द्रव्यशतं मायात्तत्रैवैक प्रदेशके । मायात् कोटिशतं मायादपि कोटि सहस्रकम् ॥४४॥ अवगाह स्वभावत्वादन्तरिक्षस्य तत्समम् । चित्रत्वाच्च पुद्गलानां परिणमस्य युक्तिभत् ॥४५॥
कहा है कि परमाणु आदि एक द्रव्य द्वारा एक आकाश प्रदेश पूर्ण हो जाता है, वैसे दो या तीन द्रव्य से भी वही प्रदेश पूर्ण हो जाते हैं । तथा इस प्रकार एक सौ द्रव्य भी उसी आकाश प्रदेश में समा जाते हैं, सौ करोड़ भी समा जाते हैं और हजार करोड़ भी समा जाते हैं । इसी प्रकार संख्यात, असंख्यात और अनन्त परमाणु भी समा जाते हैं । आकाश का अवगाह स्वभाव होने से इसे यह सर्व समान हैं और पुद्गल के परिणाम विचित्र होने से इस प्रकार होना युक्ति वाला भी है। (४३-४५)
द्वयोरपि क्रमात् दृष्टान्तौदीप्रदीप प्रकाशेन यापबर कोदरम् । एके नापि पूर्यते तत् शतमप्यत्र माति च ॥४६॥ तथा- विशत्यौषध सामर्थ्यात् पारदस्यैक कर्षके ।
सुवर्णस्य कर्षशतं तौल्ये कर्षाधिक न तत् ॥४७॥ पुनरौषध सामर्थ्यात्तद्दयं जायते पृथक् ।
सुवर्णस्य कर्षशतं पारदस्यैक कर्षक ॥४८॥ . इत्यर्थतो भगवती शतक १३ उ ४ वृत्तो।
पूर्व की दोनों बातों के समर्थन में श्री भगवती सूत्र के तेरहवें शतक चौथे उद्देश में एक-एक दृष्टान्त दिया है- १- एक कमरे के अन्दर विभाग में एक तेजस्वी दीपक का प्रकाश समा जाता है वैसे सौ दीपक का प्रकाश भी समा सकता है। २- औषधी के सामर्थ्य से एक कर्ष प्रमाण पारे में सौ कर्ष प्रमाण सुवर्ण समा जाता है फिर भी उसका वजन एक कर्ष से बढ़ता नहीं है। औषध के सामर्थ्य से पुनः अलग करने पर सुवर्ण सौ कर्ष और पारा एक कर्ष हो जाता है अर्थात् दोनों मूल थे उतने हो जाते हैं । (४६-४८) किंच-धर्मास्तिकायस्तद्देशस्तत्प्रदेश इति त्रयम् ।
एवं त्रयं त्रयं ज्ञेयम धर्माभ्रास्ति काययोः ॥४६॥ धर्मास्तिकाय के १- अस्तिकाय (स्कंध), २- इसका देश और ३- इसके प्रदेश - इस तरह तीन भेद होते हैं - अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के भी इसी तरह तीन-तीन भेद होते है। (४६)