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(३६)
वह इस प्रकार- . तथाहि - सुदर्शनं सुरगिरिं परितो निर्जरा दश ।
केऽपि कौतुकिनः सन्ति स्थिता दिक्षु दशस्वपि ॥३०॥ मानुषोत्तर पर्यन्तेऽष्टासु दिक्षु बहिर्मुखाः । बलिपिंडान् दिक्कुमार्यः किरन्त्यष्टौ स्वदिश्वथ ॥३१॥ विकीर्णान् युगपत्ताभिस्तान् पिंडानगतान् क्षितिम् । यया गत्या सुरस्तेषामेकः कोप्याहरे द्रयात् ॥३२॥ तया गत्याथ ते देवा अलोकान्त दिदृक्ष या । गन्तुं प्रवृत्ता युगपद्यदा दिक्षु दशस्वपि ॥३३॥ तदा च वर्ष लक्षायुः पुत्रोऽभूत्कोऽपि कस्यचित् । तस्यापि तादृशः पुत्रः पुनस्तस्यापि तादृशः ॥३४॥ कालेन तादृशाः सप्त पुरुषाः प्रलयं गताः । ततस्तदस्थिमजादि तन्नामापि गतं क्रमात् ॥३५॥
एक बार मेरुपर्वत के आस-पास दस दिशाओं के दस देव कौतूहल को लेकर खड़े हुए । उस समय में मानुषोत्तर पर्वत के शिखर पर रहकर आठ दिक्कुमारियां अपनी-अपनी दिशा में बलिपिंड फैंकने लगीं। दिक्कुमारियों ने इस तरह एक समय में फैंका कि आठ बलिपिण्डों को पृथ्वी पर पड़ने न देकर उन देवों ने एक ही गति द्वारा एक साथ ग्रहण किया । उसी गति द्वारा जब वे देव अलोक के अन्त भाग को देखने की इच्छा को लेकर सभी साथ में दस दिशाओं चले जाते है। उस समय में किसी एक मनुष्य को लाख वर्ष के आयुष्य वाला एक पुत्र हुआ, और फिर उसी पुत्र को भी उतनी ही आयुष्य में एक पुत्र हुआ । उस पुत्र के पुत्र का भी इतने ही आयुष्य वाले में एक पुत्र हुआ। इस तरह काल जाते सात पेढी परम्परा हो गयी। अनुक्रम से उनकी अस्थि, रक्षा, मज्जा आदि भी नष्ट हो जाये, उनका नाम भी नष्ट हो जाये। (३० से ३५)
अस्मिंश्च समये कश्चित्सर्वज्ञ यदि पुच्छति । स्वामिस्तेषां किमगतं क्षेत्रं किं वा गतं बहु ॥३६॥ तदा वदति सर्वज्ञो गतमल्यं परं बहु ।
अगतस्यानन्ततमो भागोगतमिहोह्यताम् ॥३७॥ उस समय कोई यदि सर्वज्ञ परमात्मा से प्रश्न करे कि- हे स्वामी ! इन देवों