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ने जितना क्षेत्र पार किया है वह अधिक है अथवा जो पार करना क्षेत्र अभी शेष है वह अधिक है। तब भगवन्त कहते हैं - जितना क्षेत्र पार किया है वह तो अल्प है, अभी तो इससे बहुत सारा पार करना रह गया है। ऐसा समझना या एक जो पार किया है वह अन्य के अनन्त में विभाग के समान है। (३६-३७)
स्थित्वा सरोऽपि लोकान्ते नालोके स्वकरादिकम् । ईष्टे लम्बयितुं गत्य भावात्पुद्गलजीवयोः ॥३८॥
तथा पुद्गल और जीव अलोक में गमन नहीं कर सकता है अर्थात् लोकान्त में रहा कोई देव भी इस लोक में अपने हाथ पैर आदि लम्बे नहीं कर सकता। (३८) उसे कहते हैं -
तदुक्तम्- वस्तुतस्तु नभोद्रव्यमेकमेवास्ति सर्वगम् । .
___धर्मादि साहचर्येण द्विधाजातमुपाधिना ॥३६॥ : लोकालोक प्रमाणत्वात् क्षेत्रतोऽनन्तमेव तत् । । असंख्येय प्रमाण च परं लोक विवक्षया ॥४०॥ .
वस्तुतः तो यह सर्व व्यापक आकाश द्रव्य एक ही है। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के साहचर्य के कारण से ही इसके दो हुए है। इसका क्षेत्र लोकालोक के सदृश विस्तार है अर्थात् 'अनन्त' है परन्तु लोकाकाश की विवक्षा से इसका प्रमाण असंख्यात है। (३६-४०)
कालतः शाश्वतं वर्णादिभिमुक्तं च भावतः । अवगाह गुणं तच्च गुणतो गदितं जिनैः ॥४१॥ अवकाशे पदार्थानां सर्वषां हेतुता दधत् । शर्कराणां दुग्धमिव वह्वेर्लोहादि गोलवत् ॥४२॥ युग्मम् ।
काल परत्व यह (आकाश) शाश्वत है। भाव परत्व वर्ण, रूप, रस, स्पर्श, गंध से युक्त है। गुण परत्व अवगाह गुण वाला है। जैसे दूध में शकर के लिए अवकाश है और लोहखण्ड आदि के गोल में अग्नि के लिए अवकाश होता है अर्थात् एक अन्य में समा जाता है उसी तरह आकाश में सर्व पदार्थों के लिए अवकाश है अर्थात् इसमें वे समा जाते है। (४१-४२) यतः- परमाण्वादिना द्रव्येणैके नापि प्रपूर्यते ।
खप्रदेशस्तथा द्वाभ्यामपि ताभ्यांतथा त्रिभिः ॥४३॥