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धर्मास्तिकाय के १- द्रव्य परत्व, २- क्षेत्र परत्व, ३- काल परत्व,४- भाव परत्व और ५- गुण परत्व, इस तरह पांच भेद होते हैं । द्रव्य परत्व एक द्रव्य रूप है, क्षेत्र परत्व लोकाकाश तक है, कालपरत्व शाश्वत है क्योंकि भूतकाल में था, वर्तमान काल में भी है और भविष्य काल में भी रहने वाला है और भाव परत्व वर्ण रूप रस गंध, स्पर्श - इन पांचों से रहित है और गुरु परत्व यह गति में सहायक है, क्योंकि पुद्गल को तथा आत्माओं को यह संचार में सहायता करता है । जैसे जल मछली की सहायता करता है वैसे ही वह सहायता करता है। (१५ से १८)
जीवानामेष चेष्टासु गमनागमनादिषु । भाषामनः वचोकाय योगादि एवेति हेतु ताम् ॥१६॥ अस्यासत्त्वाद लोके हि नात्म पुद्गल योर्गतिः । लोकालोक व्ययस्थापि नाभावेऽस्योपपद्यते ॥२०॥
तथा सर्व जीव गमन आगमन आदि कर सकता है - इसमें भी यह हेतु रूप है, तथा वह भाषा और मन, वचन, काया के योग आदि चेष्टाएँ कर सकता है । इसका भी यही कारण है । इस लोक में यदि धर्मास्तिकाय न हो तो वहां आत्मा की अथवा पुद्गल की गति नहीं हो सकती, एवं इसके अभाव में लोक और अलोक की व्यवस्था ही नहीं हो सकती है। (१६-२०) .
द्रव्य क्षेत्र काल भावैर्धर्म भ्रातेव युग्मजः । स्यादधर्मास्ति कार्योऽपि गुणतः किन्तु भिद्यते ॥२१॥ स्थित्यु पष्टम्भकर्ता हि जीव पुद्गलयोरयम् । .. मीनानां स्थलवद्ये नालां के नासौ न तत्स्थितिः ॥२२॥ अयं निषदन स्थान शयनालम्बनादिषु । प्रयाति हेतुतां चित्त स्थैर्यादि स्थिरतासु च ॥२३॥ गति स्थिति परिणामै सत्य वै तौ सहायकौ । जीवादीनां न चेत्तेषां प्रसज्येते सदापि ते ॥२४॥
अधर्मास्ति काय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव- ये चार परत्व तो जानता है, धर्मास्ति काय का युग्म ही बन्धु समान होता है केवल गुण परत्व में भिन्न है। एक स्थान पर जैसे मछली स्थिर हो जाती है वैसे अधर्मास्तिकाय के कारण जीव और पुद्गल दोनों स्थिरता में आ जाते है। यह अधर्मास्तिकाय अलोक में नही है। इसलिए वहां जीव अथवा पुद्गल की स्थिति नहीं है। बैठने में, खड़े होने में, सोने में,