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अथवा जीव अजीव स्वरूप और नित्य अनित्य आदि छः द्रव्य हैं, उसे द्रव्य लोक कहते हैं । (५)
तथोक्तं स्थानांग बृत्तौ
जीवमजीवे रूवमरूवि सपए समप्पएसे अ । जाणाहि दव्वलोगं निच्चमनिच्चं च जं दव्वं ॥ ६ ॥
स्थानांग (ठाणांग) सूत्र की वृत्ति में कहा है- रूपी, अरूपी, सप्रदेशी, अप्रदेशी तथा नित्यानित्य जीव अजीव रूप छः द्रव्य को द्रव्य लोक कहते है । (६)
ये संस्थान विशेषेण तिर्यगूर्ध्वमघः स्थिताः । आकाशस्य प्रदेशास्तं क्षेत्रलोकं जिना: जगुः ॥ ७ ॥
ऊर्ध्व, अध और तिर्च्छा इस तरह विशिष्ट संस्था का स्थानों वाला आकाश प्रदेश है, उसे जिनेश्वर क्षेत्रलोक कहते हैं । (७)
समयावलिकादिश्च काल लोको जिनैः स्मृतः । भावलोकस्तु विज्ञेयो भावा औदयिकादयः ॥ ८ ॥
समय और आवलि आदि को काललोक कहा है तथा औदयिक आदि अमुक भाव है, उसे जिनेश्वर प्रभु ने भाव लोक कहा है।
अति सूक्ष्म काल को समय कहते हैं। आंख बन्द करके खोलो तो उसमें असंख्यात समय हो जाता है। असंख्यात समय हो तब एक आवलि होती है । एक करोड़ छियासठ लाख सत्तर हजार दो सौ सोलह आवली का एक मुहूर्त (दो घड़ी) होता है, आदि शब्द से दो घड़ी का एक मुहूर्त ३० मुहूर्त का एक दिन, १५ दिन का एक पखवारा, दो पखवारे का एक महीना, १२ महीने का एक वर्ष, असंख्यात वर्ष का एक पल्योपम, दस कोटा कोटी पल्योपम का एक सागरोपम, दस कोटा कोटी सागरोपम का एक उत्सर्पिणी या एक अवसर्पिणी काल है, इन दोनों को मिलाने से एक कालचक्र कहलाता है और अनन्त काल चक्र का एक पुद्गल परावर्तन काल कहलाता है। और भावलोक का भावार्थ है वस्तु का स्वभाव । (८)
स्थानांग सूत्र की वृत्ति में कहा है - यदाहुः स्थानांगवृतौः
उदईए अवसमिए खइए अ तहा खओवसमिए अ । परिणाम सन्निवाए छव्विहो भावलोओत्ति ॥६॥
भावलोक की ठाणांग सूत्रवृत्ति में छ: प्रकार इस तरह कहे हैं - १. औदयिक, २. औपशमिक, ३. क्षायिक, ४. क्षायोपशमिक, ५. परिणामी, ६. सन्निपाति । (६)