________________
(३३)
इत्यादि यथास्थानं ज्ञेयम् ।
इत्यंगुलादि प्रकृतोपयोगिमानं मयाप्रोक्तिमपेक्ष्य दृष्यम । अथोयथा स्थानमिदं नियोज्यं, कोशस्थितं द्रव्यमिवागमज्ञैः ॥२१३॥
,
इस प्रकार मैंने यह प्रकृत-यथार्थ ग्रन्थ में उपयोगी अंगुल आदि की माप का आप्त पुरुषों के वचनों की अपेक्षा से वर्णन किया है। शास्त्रज्ञ ने निधि में के द्रव्य के समान यथा-योग्य स्थान पर इसका उपयोग करना । (२१३)
विश्वाश्चर्यद कीर्ति कीर्तिविजय श्री वाचकेन्द्रान्तिष | द्राज श्री तनयोऽनिष्ट विनयः श्री तेजपालात्मजः ॥ काव्यं यत्किल तत्र निश्चित जगत्तत्त्वप्रदीपोपमे । सर्वो निर्गल तार्थसार्थ सुभगो पूर्णः सुखे नादिमः ॥२१४॥
समस्त जगत् को आश्चर्य कराने वाले कीर्तिमान उपाध्याय भगवन्त श्री कीर्ति विजय महाराज के शिष्य, माता राजश्री और पिता तेजपाल के पुत्र उपाध्याय श्री विनय विजय ने इस काव्य ग्रन्थ रत्न की रचना की है । जगत् के निश्चित तत्त्वों पर प्रकाश करने में दीपक समान इस ग्रन्थ का, इसमें से निकलते अर्थ समूह द्वारा मंगलकारी सुन्दर प्रथम सर्ग निर्विघ्न- सुखपूर्वक समाप्त हुआ। (२१४)
॥ इति प्रथम सर्ग समाप्त ॥