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एक रूपेण युक्तं तद संख्यासंख्यकं लघु ।
अर्वागुत्कृष्टतो मध्यमथोत्कृष्टं निरूप्यते ॥१८७॥
'जघन्य युक्त असंख्यात' से प्रारम्भ करके अन्तिम उत्कृष्ट युक्त असंख्यात तक का मध्यम युक्त असंख्यात कहलाता है, और एक रूप हीन 'जघन्य युक्त असंख्यात' का वर्ग कहने से 'उत्कृष्ट युक्त असंख्यात' होता है, परन्तु यदि वह एक रूप युक्त हो तो वह जंघन्य असंख्य असंख्यात कहलाता है। उत्कृष्ट से पूर्व का है वह 'मध्यम असंख्य असंख्यात' होता है। (१८५ से १८७)
जघन्यासंख्यासंख्यातं यत्ततो वर्गितं त्रिशः । अभीभिर्दशभिः क्षेपैर्वक्ष्यमाणैर्विमिश्रितम् ॥१८८॥
अब उत्कृष्ट असंख्य असंख्यात विषय कहते हैं - जघन्य असंख्य असंख्यात का तीन बार वर्ग करना और उसमें आगे कहे अनुसार दस असंख्याता मिलाना चाहिए । (१८८) तच्चैवम - त्रिंशत्कोटा कोटि सारा ज्ञान वरण कर्मणः ।
स्थितिरूत्कर्षतो ज्ञेया जघन्यान्तमुहूर्त की ॥१८॥ अनयोरन्तराले च मध्यमाः स्युरसंख्यशः । आसां बन्धहेतु भूताध्यवसाया असंख्यशः ॥१६०॥ एवमेवाध्यवसाया अपरे ष्वपि कर्मसु । स्युरसंख्येय लोकाभ्रप्रदेश प्रमिता इमे ॥१६१॥ जघन्यादि भेदवन्तोऽनुभागाः कर्मणा रसाः । तेप्य संख्येय लोकाभ्रप्रदेश प्रमिताः किल ॥१६२॥
ज्ञानावरणी कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटा कोटी सागरोपम की है और जघन्य स्थिति अन्तर मुहूर्त की है। इन दोनों के बीच में असंख्य मध्यम स्थिति हैं और इसके बन्ध के हेतु भूत 'अंसख्य' अध्यवसाय हैं । इसी तरह से अन्य कर्मों में भी अध्यवसाय (परिणाम) असंख्य लोकाकाश के प्रदेश के जितने ही हैं। इस तरह जैसे कर्म का स्थिति बन्ध असंख्य है वैसे ही जघन्यादि भेद से इसके अनुभाग रूप रस बन्ध भी असंख्य हैं । (१८६ से १६२) ततश्च- लोकाभ्रधर्माधर्मैक जीवानां ये प्रदेशकाः ।
अध्यवसाय स्थानानि स्थिति बन्धानुभागयोः ॥१६॥