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(३०) मनोवचः काययोग विभागा निर्विभागकाः । कालचक्रस्य समयास्तथा प्रत्येक जन्तवः ॥१६४॥ अनन्तांगिदेह रूपा निगोदाश्च दशाप्यमन् । त्रिवर्गिते लध्व संख्यासंख्येऽसंख्यान्नियोजयेत् ॥१६॥ त्रिशः पुनर्वर्गयेच्च भवेदेवं कृते सति । ... असंख्यासंख्यमुत्कृष्टमेक रूप बिना कृतमे ॥१६६॥
चतुर्भिः कलापकम् । १- लोकाकाश का प्रदेश, २- धर्मास्तिक का प्रदेश, ३- अधर्मास्तिक काय का प्रदेश, ४- एक जीव के प्रदेश, ५- स्थिति बंध के अध्यवसाय के स्थान अर्थात् अमुक कर्म अमुक काल या मुहूर्त तक रहता है - उस कर्म का स्थिति बंध कहलाता है । कर्म के शुभाशुभ फल वह कर्म का अनुभाग या रस कहलाता है। उसका निश्चय वह अनुभाग बंध है,६- अनुभाग बंध के अध्यवसाय के स्थान, ७- मन योग, वचन योग और काय योग के अविभाज्य विभाग,८- काल चक का समय (दस कोटा कोटी सागरोपम का एक उत्सर्पिणी काल कहलाता है), अवसर्पिणी काल भी उतना ही कहलाता है और उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दोनों का काल हो जाय वह कालचक्र कहलाता है, ६- प्रत्येक-शरीर जंतु और १०- अनन्त काय के जीव (निगोद) का शरीर। ये सब असंख्यात हैं। इसको मिलाने के बाद पुनः इसके तीन बार वर्ग करना । उसके बाद इसमें से एक रूप कम करना अर्थात् 'उत्कृष्ट असंख्य अससंख्यांत' होता है। (१६३-१६६)
तत्रैक रूप प्रक्षेपे परीत्तानन्तक लघु । परीत्तानन्त काजयेष्टद्यदर्वाक् तच्च मध्यमम् ॥१६७॥ अभ्यास गुणिते प्राग्वत्परीत्तानन्तके लघौ । . परीत्तानन्तमुत्कृष्टमेक रूपोज्झितं भवेत् ॥१६८॥ सैक रूपे पुनस्तस्मिन् युक्तानन्तं जघन्यकम् । अभव्य जीवस्तुलितं मध्यं तूत्कृष्टकावधि ॥१६॥ जघन्ययुक्तानन्ते च वर्गिते रूप वर्जिते । स्याधुक्तानन्तमुत्कृष्टमित्युक्तं पूर्व सूरिभिः ॥२०॥ यत्रैक रूप प्रक्षेपादनन्तानन्तकं लघु । प्राग्देवदपि ज्ञेयं मध्यमुत्कृष्टकावधि ॥२०१॥