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गाथा ४५-४६ ] क्षपणासार
[ ४७ बन्ध प्रारम्भ हो जाता है, इससे पूर्व देशघाति द्विस्थानीयरूप (लता, दारु रूपसे) मोहनीय कर्मका अनुभागबन्ध होता था अब परिणामोंके माहत्म्यवश घटकर वह एक स्थानीय (लतारूप) हो जाता है । (२) पहले मोहनीयकर्म के अनुभागका उदय द्विस्थानीय (लता, दारु) देशघातिरूपसे होता था अन्तरकरणके अनन्तर ही एक स्थानीयरूपसे (लतारूपसे) परिणत हो गया। (३) मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध पहले असंख्यातवर्षप्रमाण होता था वह घटकर अब सख्यातहजारवर्षप्रमाणवाला हो गया। (४) मोहनीयकर्मका आनुपूर्वीसंक्रम यथा-स्त्रीवेद और नपुसकवेदके प्रदेशपुञ्जको पुरुषवेदमें ही नियमसे सक्रान्त करता है । पुरुषवेद और छह नोकषायके प्रदेशपुञ्जको सञ्ज्वलनक्रोधमें संक्रान्त करता है, अन्य किसी में संक्रान्त नही करता । सज्वलनक्रोधको संज्वलमानमें ही, संज्वलनमानको संज्वलनमायामें हो और संज्वलनमायाको सज्वलनलोभमें निक्षिप्त करता है। पहले चारित्रमोहनीयरूप प्रकृतियोंका आनुपूर्वीके बिना संक्रम होता था, किन्तु इस समय इस प्रतिनियत आनुपूर्वीसे प्रवृत्त होता है । (५) पहले आनुपूर्वीके बिना लोभसज्वलनका भी शेष संज्वलन
और पुरुषवेदमे प्रवृत्त होनेवाला सक्रम होता था, किन्तु यहां आनुपूर्वीसक्रमका प्रारम्भ होनेपर प्रतिलोभसक्रमका अभाव होनेसे रुक गया। यहांसे लेकर संज्वलन लोभका संक्रमण नही होता । यद्यपि आनुपूर्वीसक्रमसे ही यह अर्थ उपलब्ध हो जाता है तो भी मन्दबुद्धिजनोंके अनुग्रहके लिए पृथक् 'निर्देश किया गया । (६) नपुसकवेदता -क्षपक 'आयुक्तकरणके द्वारा नपुसकवेदकी क्षपणक्रिया में उद्यत होता है । जैसे पहले सर्वत्र ही समयप्रबद्ध बन्धावलिके व्यतीत होने के बाद ही उदीरणाके लिए शक्य रहता आया है इसप्रकार यहां शक्य नहीं है, किन्तु अन्तर; किये जानेके-प्रथमसमयसे लेकर जो कर्म बधते हैं वे कर्म छह आवलियोके व्यतीत होने के बाद उदीरणाके लिए शक्य होते हैं बंधसमयसे लेकर जबतक पूरी छह-आवलियां व्यतीत नहीं होती तब तक उनकी-उदी रणा होना शक्य नहीं है।
. १. , आयुक्तकरण, उद्यतकरण और प्रारम्भकरण ये तीनों एकार्थक हैं। यहासे लेकर,नपुसकवेदकी
क्षपणा प्रारम्भ हो जाती है। (जयधवल पु० १३ पृष्ठ २७२) "तत्य णवुसयवेदस्स आउत्तकरणसंकामगो त्ति भरिणदे णवुसयवेदस्स खवणाए अब्भुट्टिदो होदूण पयट्टो त्ति भणिदं होदि"
(जयधवल मूल पृष्ठ १६६७) । २. जयधवल पु० १३ पृष्ठ २६४ से २६७ तक ।