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गाथा २२१-२२२ ]
लब्धिसार
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चारित्रमोहोपशम विधान में पाये जाने वाले आठ कार्योंका निर्देश करते हैंतिकरणबंधोसरणं कमकरणं देसघादिकरणं च । अंतरकरणं उवसमकरणं उवसामणे होंति ॥ २२० ॥
अर्थ - चारित्रमोहनीयका उपशम करनेमे आठ करण होते है । 'तिकरण' अर्थात् अध प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण ये तीनकरण तथा बधापसरण, क्रमकरण, देशघातिकरण, अन्तरकरण और उपशमकरण । इसप्रकार प्राठकरण होते है । दिशेषार्थ - अध' करण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, बधापसरण, अन्तरकरण और उपशमकरणका स्वरूप प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्तिमे कहा जा चुका है । अनिवृत्तिकरणकालमे मोहनीयका स्थितिबन्ध स्तोक, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनका स्थितिबन्ध तुल्य, किन्तु मोहनीयके स्थितिबन्धसे असख्यातगुणा नाम व गोत्रका स्थितिबन्ध तुल्य, परन्तु पूर्वसे असख्यातगुणा और वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता है जब इस क्रमसे स्थितिबन्ध होता है इसको पाचवा क्रमकरण कहते है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायका बन्ध जब देशघातिरूपसे होने लगता है, सर्वघातिरूपसे बन्ध नही होता उसको छठा देशघातिकरण कहते है । आगे अपूर्वकरण में स्थितिकांडकका कथन करते हैंविदियकरणादिसमये उवसंततिदंसणे जगणेण । पल्लम्स संखभागं उक्कस्सं सायरपुधत्तं ॥ २२९ ॥ ठिदिखंडयं तु खइये वरावरं पल्लसंखभागो दु । ठिदिबंधोसरणं पुण वरावरं तत्तियं होदि ||२२२ ||
अर्थ– द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि के द्वितीय ( अपूर्व ) करण के आदि ( प्रथम ) समयमे स्थितिकाडक जघन्यसे पल्यका सख्यातवाभाग आयामवाला और उत्कृष्टसे पृथक्त्वसागरप्रमाणवाला होता है, किन्तु क्षायिकसम्यग्दृष्टिके जघन्य व उत्कृष्ट स्थितिकाडकआयाम पल्य के असख्यातवेभाग मात्र है । जघन्य व उत्कृष्ट स्थितिवधापसरण उतना ही अर्थात् पल्यके सख्यातवेभागप्रमाण है ।
विशेषार्थ - अधः प्रवृत्तकरण नामका गुणस्थान न होने के कारण गाथामे ग्रध:करणके कार्योंका उल्लेख नही किया, किन्तु गाथा २२० के अनुसार अध-प्रवृत्तकरण