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क्षपणासार
[ गाथा ३२० - ३२१
छहं पुण वाणं संखेजसहरसमेत्ताणि ॥ ३२० ॥
अर्थः- उसी उतरनेवाले मानवेदककालके प्रथमसमयमे सज्वलन मान-मायालोभका चारमास और शेष छह कर्मका सख्यातहजार वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता है ( जो चढने की अपेक्षा दोगुणा है । )
विशेषार्थ : - इस प्रकार सहस्रो स्थितिबन्ध व्यतीत होते है तब मानवेदकके अन्तिम समयमे तीन ( लोभ- माया - मान ) सज्वलन कषायोका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त - कम आठ मास होता है और शेष छह कर्मोंका स्थितिबन्ध सख्यात सहस्रवर्षप्रमाण होता है । इसप्रकार मानवेदककाल समाप्त हो जाता है । '
आगे दोगाथाओंमें संज्वलनक्रोधमें होनेवाली क्रिया विशेषका विचार करते हैंमोरगको पढमे छक्कम्मसमाणया हु गुणसेढी । बादरकसायणं पुण एतो गलिदावसेसं तु ॥३२१॥
अर्थः- इसके अनन्तर उतरनेवाले अनिवृत्तिकरण जीवके संज्वलनक्रोधके उदय सम्बन्धी प्रथम समय मे अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, सज्वलनक्रोध- मान-माया-लाभरूप बारह कषायोकी ज्ञानावरणादि छह कर्मोके समान गलितावशेष गुणश्रेणि करता है । विशेषार्थ - गुणश्र ेणी आयामका प्रमाण उतरनेवाले अनिवृत्तिकररणके पूर्वकरण कालकी अपेक्षा कुछ अधिक है । यहासे पहले मोहका गुणश्रेणि आयाम अवस्थित था अब गलितावशेषरूप प्रारम्भ हुआ है ।
जिस कषायके उदयसहित उपशमश्रेणि चढ़ा हो तथा उतरते हुए उस कषाय का जिससमय उदय हो उस समय से लेकर सर्वमोहनीयकी गलितावशेष गुणश्रेणी करता है और अन्तरका पूरना करता है । यहा कोधकी विवक्षा है | वह इसप्रकार है— ग्रन्तरपूरण विधान - बारह प्रकारकी कषायोके द्रव्यको अपकर्षित करके उस समय गुणश्रेणिनिक्षेप करता हुआ त्रोधसज्वलन के उदयमे स्तोक प्रदेशाग्र देता है । उससे ग्रागे तबतक असख्यातगुणा क्रमसे देता है जबतक कि ज्ञानावरणादि कर्मो के पूर्व निक्षिप्त गुण शिशीर्षको प्राप्त हो जाय । पुनः तदनन्तर उपरिम अनन्तर समय में १ ज घ. मूल पृ १६००, ध पु६ पृ. ३२२ एव क पा सुत्त पृ ७१८ सूत्र ४४१-४२ ।