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गाथा ३३४-३५ ]
क्षपणासार
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जाता है और नाम गोत्रके स्थितिबन्धसे तीन घातिया कर्मोका स्थितिबन्ध विशेष अधिक हो जाता है । इससे भी वेदनीयकर्मका स्थितिबंध विशेष अधिक होता है; क्योकि परिणाम विशेषके कारण इसप्रकार के बन्धकी निर्बाधरूपसे सिद्धि होजाती है । उपशम श्ररिण चढनेवाले के जिस स्थानपर नाम - गोत्रके स्थितिबन्धसे तीन घातिया ( ज्ञानावरण-दर्शनावरण-अन्तराय ) कर्मो का स्थितिबन्ध एकसाथ असख्यातगुणा हीन हो जाता है उस स्थानसे कुछ पूर्व उतरनेवाले के स्थितिबन्धमें उपर्युक्त परिवर्तन हो जाता है अर्थात् नाम- गोत्रके स्थितिबन्धसे तीन घातिया कर्मोका स्थितिबन्ध विशेष अधिक हो जाता है ।
शङ्का – यदि ऐसा है तो नाम - गोत्रकर्मके स्थितिबन्धसे तीन घातिया कर्मोंका स्थितिवन्ध विशेष अधिक वृद्धिरूप क्यो होता है; असंख्यातगुणो वृद्धिरूप क्यो नही हो जाता ?
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समाधान — श्रेणिसे उतरनेवालेके सर्व स्थितिबन्धो में विशेष अधिकरूपसे वृद्धिकी प्रवृत्ति होती है ऐसा नियम देखा जाता है । अथवा ऐसे नियमका निर्निबन्धनपना नही है, किन्तु निबन्धनरूपसे यहा चूर्णिसूत्रकी प्रवृत्ति हुई है ।
पुनः इसक्रमसे सख्यातहजार स्थितिबन्धोत्सरण होकर अन्तर्मुहूर्तकाल नीचे उतरकर वहा अन्यप्रकार के अल्पबहुत्व वाला स्थितिबन्ध होता है । अर्थात् इसप्रकार सख्यातहजार स्थितिबन्ध करके तत्पश्चात् एक साथ मोहनोयकर्मका स्थितिबन्ध सबसे कम होता है इससे नाम गोत्रका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा होता है । इससे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्मोंका स्थितिबन्ध परस्पर तुल्य होते हुए विशेष अधिक होता है ।
शङ्का — पूर्वमे ज्ञानावरणादि कर्मोंके स्थितिबन्धसे वेदनीय कर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता था, पुन. एक साथ वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध तीन घातियाकर्मी के स्थितिबन्धके सदृश कैसे हो गया ?
समाधान' — ऐसी शंका करना ठीक नही है, क्योंकि अन्तरङ्ग परिणाम विशेषके आश्रयसे वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध तीन घातिया कर्मोके स्थितिवन्धके सदृश होने मे विरोधका अभाव है । श्ररिंग चढ़नेवाला जिसस्थानपर ज्ञानावरणादिके स्थिति